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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
४–'उमास्वाति' भाष्य का व्याख्याता सिद्धसेन गणी (सं० ७००) लिखता है
'भीमसेनात् परतोऽन्यैर्वैयाकरणैरर्थद्वयेऽपठितोऽपि [चिति] धातुः संज्ञाने विशुद्धौ च वर्तते ।' पृष्ठ २६४ ।
अर्थात्-भीमसेन से परवर्ती अन्य वैयाकरणों द्वारा चिति धातु दो अर्थों में पठित न होने पर भी संज्ञान और विशुद्धि अर्थ में वर्तमान है।
यद्यपि इन प्रमाणों से यह प्रतीत होता हैं कि धात्वर्थ-निर्देश भीमसेनप्रोक्त है, तथापि पूर्वनिर्दिष्ट प्राचीन सुदृढ़ प्रमाणों द्वारा 'धात्वर्थनिर्देश पाणिनीय है ऐसा सिद्ध होने पर नागेश भट्ट आदि के वचन भ्रममूलक ही हैं। तृतीय और चतुथ उद्धरणों में धात्वर्थ-निर्देश भीमसेनकृत है, इसका कोई निर्देश नहीं है। हां, इनसे इतना अवश्य विदित होता है कि किसी भीमसेन का पाणिनीय धातुपाठ के साथ कुछ विशिष्ट सम्बन्ध है।
नागेश आदि की भ्रान्ति का कारण-भीमसेन नामक कोई वैयाकरण पाणिनीय धातुपाठ का व्याख्याता था, यह हम आगे वत्तिकारप्रकरण में कहेंगे। सम्भव है, इसी सम्बन्ध के कारण धात्वर्थ-निर्देशविषयक पूर्वनिर्दिष्ट भ्रान्ति हुई है। __दूसरी म्रान्ति-इतिहास से अनभिज्ञ कई वैयाकरण नामसादृश्य २० के कारण धातुवृत्तिकार भीमसेन को पाण्डुपुत्र समझते हैं । यह सर्वथा
चिन्त्य है । भगवान् पाणिनि भारत युद्ध से लगभग दो सौ वर्ष पीछे हुए, यह हम इस ग्रन्थ के पांचवें अध्याय (भाग १, पृष्ठ २०५--२२१ च० सं० ) में सविस्तार लिख चुके हैं । इसलिए यह भीमसेन पाण्डुपुत्र नहीं हो सकता।
धातुपाठ में अर्थनिर्देश पाणिनीय है यह हम पूर्व पृष्ठ ५५--६० तक सप्रमाण विस्तार से लिख चुके हैं। किन्ही प्राचार्यों का मत है कि भ्वेधस्पर्श रूप लघुपाठ का अर्थनिर्देश ही धातुपाठ पर पाणिनि की वृत्ति हैं।
लघुपाठ का उच्छेद ३० धातुपाठ का अर्थनिर्देश-विरहित जो लघु पाठ था, वह इस समय