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६२ संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
वातिकपाठ का प्राश्रयभूत लघुपाठ-जिस प्रकार वात्तिककार कात्यायान ने अष्टाध्यायी के लघुपाठ पर अपने वार्तिक रचे, इसी प्रकार उसने धातुपाठ के अर्थरहित लघुपाठ को स्वीकार करके 'परिमाणग्रहणं च' (महा० १।३।१) वार्तिक की रचना की। - सूत्रपाठ का आश्रय वृद्ध पाठ-पाणिनि के सूत्रपाठ के अवगाहन से प्रतीत होता है कि पाणिनि ने सूत्रपाठ का प्रवचन करते हुए धातुपाठ के वृद्धपाठ को अपने ध्यान में रखा था । पाणिनि के अनेक नियम धातपाठ के लघुपाठ के आधार पर उपपन्न ही नहीं
होते । यथा १० पाणिनि ने इट-आगम के प्रतिषेध के लिए नियम बताया है
एकाच उपदेशेऽनुदात्तात् । अ० ७।२।१०॥ अर्थात्-उपदेश में अनुदात्त एक अच् वाली धातु को इट् का आगम नहीं होता।
धातुपाठ के वृद्धपाठ में प्रत्येक प्रघट्टक के अन्त में उदात्तः, उदात्ताः, १५ अनुदात्ताः, परस्मभाषा:, प्रात्मनेभाषाः इत्यादि सूत्र उपलब्ध होते
हैं। इनसे कौन-सी धातु उदात्त है, कौन-सी अनुदात्त, तथा कौन-सी परस्मैपद है कौन-सी आत्मनेपद आदि परिलक्षित होता है । धातुवृत्तिकार 'भू सत्तायाम्' आदि अन्य धातुसूत्रों के समान इन सूत्रों की
भी व्याख्या करते हैं। इससे स्पष्ट है कि ये सूत्र भी पाणिनीय हैं । अर्थ २. निर्देश-विरहित लघुपाठ में ये सूत्र नहीं थे। यह 'परिमाणग्रहणं च'
(महा० ११३।१) वार्तिक के भाष्य तथा टीका-ग्रन्थों से स्पष्ट है। वहां भ्वेधस्पर्ध इस प्रकार केवल धातुओं का पाठ मान कर हो वातिककार ने वातिक पढ़ा है । लघु पाठ में भी यदि इस प्रकार के सूत्र
होते, तो भ्वेधस्पर्ध के स्थान पर भूदात्त एधस्पर्ध ऐसा व्यवहित पाठ २५ होता । इससे व्यक्त हैं कि पाणिनि ने सूत्रपाठ में धातु के अनुदात्त
आदि स्वरूपों का उल्लेख करते हुए धातुपाठ के वृद्ध पाठ को ही ध्यान में रखा हैं।
नागेश भट्ट को भ्रान्ति-नागेश ने महाभाष्य में अर्थनिर्देशयुक्त धातुसूत्रों के उद्धरण देखकर लिखा है३० नुमेति -एततत्रामाण्यात् केषांचिद् धातूनामर्थनिर्देश-सहितोऽपि
पाठ इति विज्ञायते। उद्योत ११३॥१॥