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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
(१०) इसी प्रकार धात्वर्थ-निर्देश को अपाणिनीय मानने पर समानार्थक धातु में पठित धातु का अन्यार्थ-निर्देश के लिए पुनः स्वतन्त्र पाठ नहीं हो सकता। यथा
(क) रघि लघि गत्यर्थाः, लघि भोजननिवृत्तावपि (क्षीरत० ५ १७६,७७)।
(ख) गज गजि........ शब्दार्थाः, गज मदने च ( क्षीरत. १३१५६,१५७ )।
(ग) तय नय गतौ, तय रक्षणे च (क्षीरत० ११३८, १३९) ।
इस प्रकार का धात्वर्थ-निर्देश-समुच्चायक पुनः पाठ भी धात्वर्थ१० निर्देश के पाणिनीयत्व का ही ज्ञापन करता है।
व्याख्याकारों ने उक्त दोनों प्रकार के धातु के पुनः पाठ में अर्थभेद से पुनः पाठ हैं, यही हेतु दिया है। अर्थ-निर्देश के अभाव में न तो यह हेतु बन सकता है, और न उसके प्रभाव में धातु का द्विः पाठ
कथंचित् सम्भव हो सकता है। १५ यदि किसो अक्किालिक व्यक्ति ने धातुओं के साथ अर्थ जोड़े
होते, तो एक स्थान में पठित धातु के एक साथ ही दोनों (अथवा जितने अभिप्रेत हों) अर्थ पढ़ देता। अर्थ-भेद से धातु का पुनः पाठ न करता । अङ्गप्राधान्य न्याय से अङ्गरूप (बाद में जोड़े गए) अर्थ के
कारण प्रधानरूप धातु का पूनः पाठ कदापि युक्त नहीं हो सकता। . इससे स्पष्ट है कि जैसे सूत्रपाठ में पाणिनि ने समान आनुपूर्वी वाला
बहुलं छन्दसि सूत्र प्रकरणभेद से १४ स्थानों में पढ़ा, वैसे ही उसने एक धातु का ही अर्थभेद से २-३ बार पाठ किया। इन प्रमाणों से स्पष्ट है धात्वर्थ-निर्देश भी पाणिनीय है।
धातुपाठ का द्विविध प्रवचन २५ दोनों वादों का निर्णय-धातुपाठ में पठित अर्थनिर्देश पाणिनीय
है अथवा अपाणिनीय, इन दोनों विषयों में दोनों प्रकार के प्रमाण ऊपर दर्शा चुके । इस विवाद का वास्तविक निर्णय यह है कि प्राचार्य पाणिनि ने धातुपाठ का अर्थनिर्देश-युक्त और अर्थनिर्देश-रहित दोनों प्रकार का प्रवचन किया था। किन्हीं शिष्यों के लिए अर्थनिर्देश के