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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२) ५६ चित संहिता पाठ होता, तो वावृतु तथा वापश धातुओं के स्वरूप में सन्देह ही उत्पन्न न होता । यदि अर्थ-निर्देश-सहचरित वा पद (अर्थविशेष में देवादिकत्वबोधक) का भी निर्देश न होता, तब तो सन्देह की कोई स्थिति ही नहीं थी । यदि सन्देह होता, तब भी तप वावृतु, तपवा वृतु; पत वापश, पतवा पश ऐसा सन्देह होता । वृत्तिकारो ५ द्वारा निर्दिष्ट व्याख्या-भेद तो विना धात्वर्थ-निर्देश के सम्भव ही नहीं।
सायणाचार्य धात्वर्थ-निर्देश को पाणिनीय मानकर लिखता है'अस्माकं तूभयमपि प्रमाणमाचार्येणोभयथा शिष्याणां प्रतिपादनात् ।"
अर्थात्-हमें तो 'तप ऐश्वर्ये वा, वृतु वरणे' तथा 'तप ऐश्वर्ये, वावतु वरणे' दोनों प्रकार का सूत्र-विच्छेद प्रमाण है। क्य क आचार्य ने शिष्यों को दोनों प्रकार का सूत्रपाठ बताया था।
-यदि पोणिनीय धातुपाठ में अर्थ-निर्देश अपाणिनीय हो तो कई प्रघट्टकों अथवा दण्डकों में एक ही धातु का दो वार पाठ नहीं होना १५ चाहिए। धातु के स्वरूपनिर्देश के लिए एक धातु का एक स्थान पर ही पाठ पर्याप्त है। परन्तु धातुपाठ में समान प्रघट्टक में भी एक ही धातु का दो-दो बार पाठ बहुत्र उपलब्ध होता है। यया
(क) अट्टादि में हुडि का-हुडि संघाते, हुडि वरणे (क्षीरत० १११७२:१८०)।
२० (ख) शौट्टादि में किट का-किट खिट त्रासे, इट किट कटी। गतौ (धातुवत्ति पृष्ठ ७७,७६,) ।
(ग) मव्यादि में खेल का-केल खेल क्ष्वेल वेल्ल चलने, खेल खेल सेलू गतौ (धातुवृत्ति पृष्ठ १०५, १०६) ।'
यह द्विः पाठ धातुपाठ के धात्वर्थनिर्देशपूर्वक प्रवचन में ही सम्भव २५ हो सकता है, अन्यथा नहीं।
१. घातु० पृष्ठ० २६३ । तुलना करो--उभयथा ह्याचार्येण शिष्याः सूत्रं प्रतिपादिताः । महाभाष्य १।४।१॥ द्वयमपि चैतत् प्रमाणम्, उभयथा सूत्रप्रणबनात् । काशिका ४।१।११७॥
१. द्र०-धातुवृत्ति में पाठान्तर।