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___ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
___८=धातुवृत्तिकार अनेक स्थानों में धातुसूत्रों के संहितापाठ को प्रामाणिक मानकर उनके विच्छेद में विमत दिखाई पड़ते हैं । यथा
(क) तपऐश्वर्येवावृतुवरणे (क्षोरत० ४।४८,४६) इस पाठ के मध्य में पठ्यमान वा पद पूर्वसूत्र का अवयव है अथवा उत्तरसूत्र का, इस में व्याख्याकारों में मतभेद है । यदि वा शब्द पूर्वसूत्र का अवयव है, तब भूवादि गण में पठित तप सन्तापे (क्षीरत० ११७१२) इस घातु का ही ऐश्वर्य अर्थ में विकल्प से देवादिकत्व होगा, अर्थात् ऐश्वर्य अर्थ में 'श्यन' विकल्प से होगा। यदि वा उत्तरसूत्र का अवयव है, तब भी दो व्याख्यायें होती हैं । वा पृथक् स्वतन्त्र पद मानने पर भ्वादि में पठित 'वृतु' धातु (क्षीरत० ११५०४) वरण अर्थ में विकल्प से देवादिक होगा। अर्थात् वरण अर्थ में वृतु से श्यन् विकल्प से होगा। वा को पृथक् स्वतन्त्र पद न मानने पर 'वावृतु' धातु होगी।'
(ख) पतगतौवापशअनुपसर्गात् (क्षीरतरङ्गिणो ११२४६,२५०) इस सूत्र में भी वा पद पूर्वसूत्र का अवयव है अथवा उत्तरसूत्र का, इसमें व्याख्याकारों का मतभेद है । कुछ व्याख्याकार वा को पूर्वसूत्र का अवयव मानते हुए 'पत धातु से विकल्प से णिच् होता है ऐसी व्याख्या करते हैं। अन्य वृत्तिकार उत्तरसूत्र का अवयव मानते हुए वा को स्वतन्त्र पद मानकर 'पश धातु अनुपसर्ग से णिचपरे विकल्प से अदन्त है' ऐसी व्याख्या करते हैं। इसी पक्ष में जो वा को स्वतन्त्र पद नहीं मानते, वे वापश धातु स्वीकार करते हैं।
उपरिनिर्दिष्ट प्रकार की समस्त व्याख्याएं धात्वर्थ-निर्देशों को पाणिनीय मानकर ही उपपन्न हो सकती हैं । यदि उपर्युक्त स्थलों में भी स्वेधस्पर्ध के समान तपवावृतु, पतवापश ऐसा अर्थ-निर्देश विर
- १. प्राचीन धातुवृत्तिकार 'भू सत्तायाम् । उदात्तः। परस्मैभाषः। एध २५ वृद्धौ।' इत्यादि को धातुसूत्र मानते हैं।
२. यह संहितापाठ का स्वरूप है।
३. इन व्याख्यानों के लिए देखिए-क्षीरतरङ्गिणी (४।४८,४६), धातुप्रदीप पृष्ठ ६३), पुरुषकार (पृष्ठ ८५), माधवीया धातुवृत्ति (पृष्ठ २६३) ।
भट्टिकार 'ततो वावृत्यमाना सा रामशालामविक्षत' (४।२८) में 'वावृतु ३० धातु स्वीकार करता है।
४. क्षीरत० १०।२४६, २५० द्रष्टव्यः ।