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२/८ धातुपाठ के प्रचक्ता और व्याख्याता (२) ५७
इन दोनों स्थानों में मृजूष् शुद्धौ और मेङ् प्रणिदाने सार्थ पाठ को पाणिनोय माना है। ग-अर्थपाठस्य पाणिनीयतायाः प्रागेवास्माभिः प्रपञ्चितत्वात् ।' घ-पाणिनेर्धातुपाठः स्याद् अर्थनिर्देशमिश्रितः ।'
इतना ही नहीं, शिवरामेन्द्र सरस्वती ने महाभाष्य १।३१ के ५ कुतो ह्म तद् भूशब्दो धातुसंज्ञो न पुनर्वेधशब्दः' उद्धरण से जिन वयांकरणों ने धात्वर्थ-निर्देश को अपाणिनीय माना है उनके मत का बड़ी प्रबलता से खण्डन किया है। इसके लिये 'महाभाष्य-प्रदीपव्याख्यानानि' के अन्तर्गत भाग २, पृष्ठ ८१ तथा भाग ४, पृष्ठ ८१-८२ देखने चाहिये।
५-नागेश ने धातुओं के अर्थ-निर्देश को भीमसेन द्वारा प्रदर्शित माना है', परन्तु उस का शिष्य वैद्यनाथ पायगुण्ड उद्योत की छाया टीका में मृजूष शुद्धौ सार्थ पाठ को पाणिनीय लिखता है।
हमने का शिका, न्यास, क्षीरतरङ्गिणी, और वामनीय काव्यालङ्कार के पांच वचन पूर्व (पृष्ठ ५१-५२) उद्धृत किए हैं । उनसे यह १५ प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थों के रचयिता धात्वर्थनिर्देश को भी पाणिनि के सूत्रपाठ के समान ही प्रामाणिक मानते हैं। यदि धात्वर्थनिर्देश पाणिनीय न हो, तो न तो उनमें सूत्रवत् प्रामाण्य-बुद्धि उत्पन्न हो सकती है, और नाही उनके आधार पर पाणिनीय सूत्रनियमों का विरोध होने पर भी उन शब्दों का साधुत्व हो स्वीकार किया जा २० सकता है। इसलिए उक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि काशिका आदि के रचयिता धात्वर्थ निर्देश को भी पाणिनीय ही मानते हैं।
७–पदमञ्जरीकार हरदत्त धात्वर्थ-निर्देश को पाणिनीय मानता है। वह लिखता है—'येषां त्वपाणिनीयोऽर्थनिर्देश इति पक्षः।' ७।३।३४; भाग २, पृष्ठ ८१३॥
यहां येषां पक्षः' पदों से स्पष्ट है कि वह स्वयं इस पक्ष को नहीं । मानता था।
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१. महाभाष्यपदीप व्याख्यानानि भाग ४, पृष्ठ १३७ ।
२. वही, भाग ४, पृष्ठ १३८ । ३. पूर्वत्र, भाग २, पृष्ठ ५३ । .. ४. पूर्वत्र, भाग २, पृष्ठ ५० सन्दर्भ है।