________________
५
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ३-महाभाष्यकार ने भूवादि ( १।३।१ ) सूत्र के भाष्य में लिखा है__'वपिः प्रकिरणे दृष्टः, छेदने चापि वर्तते-के शश्मश्रु वपतोति । ईडिः स्तुतिचोदनायाच्यासु दृष्टः, प्रेरणे चापि वर्तते-अग्निर्वा इतो वृष्टिमीट्टे, मरुतोऽमुतश्च्यावयन्ति इति । करोतिरभूत प्रादुर्भावे दृष्टः, निर्मलीकरणे चापि वर्तते-पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु, उन्मृदानेति गम्यते ।'
इस वचन में महाभाष्यकार ने वप-ईड-कृ धातुओं के कतिपय अर्थों को दृष्ट कहा है, और कतिपय अर्थों में इनका वर्तन (=व्यव
हार ) बताया है। दोनों दृष्ट और वर्तते पद एकार्थक नहीं हैं, यह १० तो वाक्य-विन्यास से ही स्पष्ट है । अतः यहां जिन धात्वर्थों को दृष्ट
कहा है, वे धातपाठ में पठित हैं, अथवा धातुपाठ में देखे गए हैं। और जिनके लिए वर्तते का प्रयोग किया है, वे लोक में व्यवहृत हैं, यही अभिप्राय इस वचन का है ।
उक्त वाक्य में महाभाष्यकार ने 'बीजसन्तान' अर्थ का निर्देश ७५ प्रकिरण शब्द से किया है, और 'करणे' का अभूतप्रादुर्भाव शब्द से।
ईड धात के स्तुति, चोदना और याचा अर्थों को दृष्ट कहा है, परन्तु वर्तमान धातुपाठ में चोदना याच्या अर्थ उपलब्ध नहीं होते। इसका कारण पाणिनीय धातुपाठ का उत्तर काल में बहुधा परिष्कार होना
है। पाणिनीय धातुपाठ के उत्तरकालीन परिष्कारों के विषय में २० आगे लिखेंगे।
४ महाभाष्य के व्याख्याता शिवरामेन्द्र सरस्वती ने अपनी 'सिद्धान्तरत्नप्रकाश' व्याख्या में अनेक स्थानों पर धातुओं के अर्थ को पाणिनीय माना है। यथा
क-अस्मै साधुशब्दबुभुत्सवे पाणिनिना धातुपाठे 'मृजूष' 'शुद्धौं' २५ इत्युपदृष्टिः ।
ख-'मेङ् प्रणिदाने' इति व्यतिहारापरपर्याय प्रणिदानार्थकत्वेन मेङ एव धातुपाठे पाणिनिना पठितत्वात् ...।'
१. 'महाभाष्यपदीप-व्याख्यानानि' के अन्तर्गत, भाग १, पृष्ठ २३७ । २. वही, भाग २, पृष्ठ ८२।