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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता ( २ )
" न च 'या प्रापणे' इत्याद्यर्थनिर्देशो नियामक:, तस्यापाणिनीतत्वात् । भीमसेनादयोर्थं निदिदिक्षुरिति स्मर्यते । पाणिनिस्तु 'वेध' इत्याद्य पाठीत् इति भाष्यकैयटयोः स्पष्टम् ।"
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अर्थात्- 'या प्रापणे' इत्यादि अर्थ-निर्देश भी धातुसंज्ञा का नियामक नहीं हो सकता, क्योंकि वह पाणिनीय है । भीमसेन आदि ५ ने धातुओं के अर्थों का निर्देश किया था, यह परम्परा से स्मरण किया जाता है । पाणिनि ने तो भवेध इसी प्रकार ( अर्थरहित संहिता - पाठ) पढ़ा था, यह भाष्य और कैयट में स्पष्ट है ।
५ - भट्टोजिदीक्षित ने शब्द कौस्तुभ १।२।२० में पुनः लिखा है--- 'तितिक्षाग्रहणं ज्ञापकं भीमसेनादिकृतोऽर्थनिर्देश उदाहरणमात्रम् । १० अर्थात् - सूत्र में 'तितिक्षा' ग्रहण ज्ञापक है कि भीमसेन आदि कृत धात्वर्थ-निर्देश उदाहरणमात्र है ।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि पाणिनीय धातुपाठ में जो अर्थ - निर्देश उपलब्ध होता है, वह अपाणिनीय है । पाणिनि ने तो भवेध - स्पर्धा इस प्रकार अर्थनिर्देशरहित संहितापाठ का ही प्रवचन १५ किया था ।
पाणिनीयत्व प्रतिपादक प्रमाण - अब हम धातुपाठस्थ अर्थ-निर्देश पाणिनीय है, इस मत के प्रतिपादक प्रमाण उपस्थित करते हैं --
१ - महाभाष्य में अनेक धातुएं प्रथनिर्देशपूर्वक उद्धृत हैं। उनसे विदित होता हैं कि महाभाष्य से पूर्व ही पाणिनोय धातुपाठ में अर्थनिर्देश विद्यमान था ।
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२ - महाभाष्यकार का निम्न वचन हम पूर्व उदधृत कर चुके हैं'प्राचार्यप्रवृत्तिर्ज्ञापयति- नैवजातीयकानामिविधिर्भवतीति यदयमिरितिः कांश्चिन्नुमनुषक्तान् पठति - उबुन्दिर् निशामने, स्कन्दिर् गतिशोषणयोरिति । १।३॥७॥
इस वचन से धातुपाठ के पाणिनीयत्व का ज्ञापन हम पूर्व कर चुके हैं। इसलिए जिस पाणिनि प्राचार्य ने उबुन्दिर् और स्कन्दिर् को नुम् से युक्त पढ़ा, उसी ने इनके 'निशामन' तथा 'गतिशोषण' अर्थों का भी निर्देश किया, यह इस वचन से स्पष्ट है ।
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