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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
२-'पाठेन धातुसंज्ञायां समानशब्दानां प्रतिषेधो वक्तव्यः । 'या' इति धातः, 'या' इत्याबन्तः । 'वा' इति धातः, 'वा' इति निपातः । 'न' इति धातुः, 'नु' इति प्रत्ययः । 'दिव' इति धातुः, 'दिव' इति प्रातिपदिकम् ।' महा० १॥३॥१॥
अर्थात-पाठ से धातुसंज्ञा मानने पर भी उसके तुल्य शब्दों की धातु-संज्ञा का प्रतिषेध कहना चाहिए। 'या' यह धातु है, 'या' ऐसा प्राबन्त स्त्रीलिङ्ग शब्द भी हैं । 'वा' यह धातु है, 'वा' ऐसा निपात भी है । 'नु' यह धातु हैं 'नु' ऐसा प्रत्यय भो है। 'दिव' यह धातु हैं, 'दिव' ऐसा प्रातिपदिक भी है। ___ यदि धातुपाठ में या प्रमाणे, वा गतिगन्धनयोः ऐसा सार्थपाठ पाणिनीय होता, तो समान शब्दों को धातुसंज्ञा को प्रसक्तिरूप दोष ही उपस्थित नहीं होता । क्योंकि पाबन्त 'या' शब्द प्रापण अर्थ का वाचक ही नहीं, निपात 'वा' गतिगन्धन अर्थों को कहता ही नहीं (इसी प्रकार 'नू' तथा 'दिव' के विषय में समझे) । जब इनकी धातूसंज्ञा प्राप्त ही नहीं होगी, फिर प्रतिषेध कहने की क्या आवश्यकता ? अतः इस भाष्यपाठ से भी यही प्रतीत होता हैं कि पाणिनि ने धात्वर्थनिर्देश नहीं किया था। ३- (क) नार्था प्रादिश्यन्ते क्रियावचनता च गम्यते ।
महा० ३।११८,११,१६॥ (ख) कः खल्वपि पचादीनां क्रियावचनत्वे यत्नं करोति ।
___ महा० ३।१११९॥ (ग) को हि नाम समर्थो धातुप्रातिपदिकप्रत्ययनिपातानाम
र्थानादेष्टुम् । महा० २।१।१॥ इन वचनों से भी यही ध्वनित होता है कि पाणिनि ने धातुओं २५ के अर्थों का निर्देश नहीं किया था। द्वितीय वाक्य की व्याख्या करता हुअा नागेश लिखता है
'पचादीनामर्थरहितानामेव पाठात् ।' अर्थात् पच आदि धातुओं का अर्थरहित ही पाठ होने से।
४-भट्टोजिदीक्षित ने भी शब्दकौस्तुभ १।३।१ में धात्वर्थ-निर्देश ३० को अपाणिनीय ही कहा है । वह लिखता है