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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२)
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इस उद्धरण में महाभाष्यकार ने परिमाण ग्रहण के अभाव में 'वेध' शब्द की धातुसंज्ञा की प्रसक्ति दर्शाई है । यदि धातुपाठ में भू सत्तायाम्, एध वृद्धौ ऐसा धात्वर्थ-निर्देश सहित धातुओं का पाठ होता, तो 'स्वेध' में धातुसंज्ञा की प्रसक्ति का निर्देश उपपन्न ही न होता । क्योंकि दोनों के मध्य में 'सत्तायाम्' पद पढ़ा हैं । यह प्रसक्ति तभी ५ उपपन्न होती है, जब धातुपाठ में धात्वर्थ-निर्देश न हो, केवल धातुएं 'वेधस्पर्ध' इस प्रकार संहितापाठ में पठित हों। इसीलिए महाभाष्य के उपर्युक्त पाठ की व्याख्या में कैयट लिखता है -
'न चार्थपाठः परिच्छेदकः, तस्यापाणिनीयत्वात् श्रभियुक्तै' रुपलक्षणतयोक्तत्वात् इति ।'
अर्थात्–['सत्तायाम्' आदि ] अर्थ का पाठ धातुसंज्ञा का परिच्छेदक नहीं होगा, उसके अपाणिनीय होने से । प्रामाणिक पुरुषों ने अर्थ-निर्देश उपलक्षण रूप से पढ़े हैं ।
इसकी व्याख्या करते हुए नागेश लिखता है
'भीमसेनेनेत्यैतिह्यम् ।'
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अर्थात् – धात्वर्थ-निर्देश भीमसेन ने किया है, यह इतिहास से विदित होता है ।
१. पाश्चात्य भाषामत के मतानुयायी अनेक भारतीय विद्वान् 'अभियुक्त' शब्द के विषय में लिखते हैं कि यह शब्द पहले 'प्रामाणिक' अर्थ में प्रयुक्त होता था। उत्तरकाल में इसके अर्थ का अपकर्ष अथवा अवनति होकर यह २० 'दोषी', 'अपराधी' अर्थ का वाचक बन गया है । वस्तुतः यह अज्ञानमूलक है । अभियुक्त पद की मूल प्रकृति 'अभियुज् ' और क्विबन्त रूप वैदिक ग्रन्थों में दोषी - अपराधी शत्रु अर्थ में बहुधा प्रयुक्त है । यथा - 'विश्वा अग्ने अभियुजो विहत्य' (ऋ० ५।४।५) | महाभारत शल्यपर्व ३१।६२ में 'अभियुक्तस्तु यो राजा दातुमिच्छेद्धि मेदिनीम्' में अभियुक्त शब्द अपकृष्ट अर्थ में ही प्रयुक्त २५ है । इसी प्रकार 'देवानां प्रियः' पद में भी जो प्रर्थापकर्ष की आधुनिक भाषाविज्ञ कल्पना करते हैं, वह भी प्रयुक्त है । वस्तुतः इन प्रयोगों में अर्थ - संकोच हुआ है, अर्थात् दो अर्थों में से एक अर्थ लोकव्यवहार में शेष रहा है । श्रपकर्ष नहीं हुआ ।
१. नागेश का शिष्य वैद्यनाथ पायगुण्ड धात्वर्थनिर्देश को पाणिनीय मानता है । द्र० पूर्व पृष्ठ ५०, उद्धरण ६ ।
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