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५२ संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
घ–'शुभ शुम्भ शोभार्थे (क्षीरत० ६।३३) अत एव निपातनात् शोभा साधुः ।' क्षीरत० ६॥३३॥ __अर्थात् –'शुभ शुम्भ शोभार्थे' पाठसामर्थ्य से शोभा' पद का साँघुत्व जानना चाहिए।
ऐसा ही क्षीरस्वामी ने क्षीरत० १।४६८ में भी लिखा हैज्ञापकात् शोभा ।'
अर्थात् शोभा पद ज्ञापक से साधु है।
ङ-वामन भी 'शोभा' पद के साधुत्व-प्रतिपादन के लिए काव्यालङ्कारसूत्र में लिखता है
'शोभेति निपातनात् ।' का० सूत्र ५।२।४१॥
अर्थात्-शोभा पद धातुपाठ में 'शुभ शुम्भ शोभार्थे' इस निपातन से साधु है, ऐसा समझना चाहिए।
इन उपर्युक्त प्रमाणभूत प्राचार्यों के वचनों से सुस्पष्ट है कि सूत्रपाठ के समान धातुपाठ भी पाणिनि-प्रोक्त है ।
क्या धात्वथ-निर्देश अपाणिनीय है ? __ जो वैयाकरण धातपाठ को पाणिनीय मानते हैं, वे भी धात्वर्थनिर्देश के विषय में विरुद्ध मत रखते हैं। कई वैयाकरण धात्वर्थनिर्देश को अपाणिनीय कहते हैं, कतिपय उन्हें पाणिनीय मानते हैं। इसलिए हम धात्वर्थ-निर्देश के पाणिनीयत्व और अपाणिनीयत्व के प्रतिपादक समस्त प्रमाणों को नीचे उद्धृत करते हैं- ..
अपाणिनीयत्व-प्रतिपादक प्रमाण-पहले हम धात्वर्थनिर्देश के अपाणिनीयत्व प्रतिपादक प्रमाण उपस्थित करते है
१-'परिमाणग्रहणं च कर्तव्यम् । इयानवधिर्धातुसंज्ञो भवति इति वक्तव्यम् । कुतो ह्येतद् भूशब्दो धानुसंज्ञो भवति, न पुनर्वेध२५ शब्दः ?' महा० १॥३॥१॥
___ अर्थात् [धातुसंज्ञा-विधायक प्रकरण में] परिमाण का ग्रहण भी करना चाहिए । इतनी अवधिवाला शब्द धातुसंज्ञक होता है, ऐसा कहना चाहिए। किस हेतु से यह 'भू' शब्द धातुसंज्ञक होता है, 'स्वेध' शब्द धातुसंज्ञक क्यों नहीं होता ?
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