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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२) 'यत्राचार्याः स्मरन्ति तत्रैव सूत्रकारेण तावद्विवक्षिताः सर्वेऽनुनासिका: पठिताः 'डुलभैष प्राप्तौ' इतिवत् । लेखकैस्तु संकीर्णा लिखिताः।"
अर्थात्-जहां व्याख्याता लोग अनुनासिक मानते हैं, वहीं सूत्रकार ने विवक्षित सारे अनुनासिक 'डुलभैष् प्राप्तौ" के समान पढ़े ५ थे। लेखकों ने संकीर्ण रूप से पढ़ दिया, अर्थात् निरनुनासिकों के साथ सानुनासिकों को भी निरनुनासिक रूप से पढ़ दिया।
११-पाणिनीय वैयाकरण सूत्रपाठ के समान धातुपाठ को भी पाणिनीय मानकर धातुपाठस्थ प्रयोगों के आधार पर अनेक प्रयोगों के साधुत्व का प्रतिपादन करते हैं । यथा--
क-'कथमुद्यमोपरमौ ? अड उद्यमने (क्षीरत० ११२४६ ), यम उपरमे (क्षोरत० १७११) इति निपातनादनुगन्तव्यौ ।' काशिका ७।३।३४॥
अर्थात्-उद्यम उपरम प्रयोग कैसे बनेंगे ? 'अड उद्यमने' और 'यम उपरमे' पाठ में निपातन से वृद्धि का प्रभाव जानना चाहिए। १५
ख--'धू विधुनने (क्षीरत० ६६८), तृप प्रीणने (क्षारत० पृ० ३०७, टि०३) इति निपातनादनयोर्नु ग्भविष्यति ।' न्यास भाग २, पृष्ठ ७६२।
अर्थात्--धातुपाठ में 'धू विधूनने' और 'तृप प्रीणने' में विधनन तथा प्रीणन पदों के पाठसामर्थ्य से 'नुक्' का पागम हो जाएगा। २०
ग–व्याजीकरणे लिङ्गाद् घञि कुत्वाभावः-व्याज: ।' क्षीरत० ६॥१६॥
अर्थात् –'व्याज' शब्द में 'घ' प्रत्यय में कुत्व होना चाहिए, वह 'व्यज व्याजीकरणे' (क्षीरत० ६।१६) पाठ में 'व्याज' पदनिर्देश से नहीं होता, ऐसा जानना चाहिए ।
१. पदमञ्जरी ११३।२; भाग १, पृष्ठ २१४ ।
२. क्षीरस्वामी क्षीरत० ११७२४ पर लिखता है-डुपचंष् पाके सानुनासिकोऽकारः सर्वेषामुपलक्षणार्थः ।