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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अर्थात् उसी प्रकार की धातुओं को प्राचार्य ने स्वरित और भित् पढ़ा है जो उभयरूप हैं अर्थात् जिनका क्रियाफल कर्तृगामी और अकर्तृगामी उभयथा है।
___ यहां पर भी प्राचार्य पाणिनि को हो स्वरित और नित् धातुओं ५ का पाठक" कहा है, यह व्यक्त है । यह पाठ धातुपाठ में ही है।
६–'कृतमनयोः साधुत्वम् । कथम् ? वृधिरस्मायविशेषेणोपदिष्टः प्रकृतिपाठे । तस्मात् क्तिन् -..।' महा० १।१।१॥
अर्थात्-वृद्धि और आदेच् के साधुत्व का प्रतिपादन कर दिया [पाणिनि ने] । कसे ? 'वृध' धातु सामान्यरूप से उपदिष्ट की गई १० प्रकृतिपाठ ( =धातुपाठ ) में, उससे 'क्तिन्' प्रत्यय""।
यहां पर भाष्यकार ने साक्षात् प्रकृतिपाठ अर्थात् धातुपाठ में पाणिनि द्वारा 'वृधि' धातु का उपदेश स्वीकार किया है ।
७-'मृजिरस्मायविशेषेणोपदिष्टः ।' महा० १।१।१॥ अर्थात्-मृज धातु का सामान्यरूप से उपदेश किया है । इसकी व्याख्या में शिवरामेन्द्र सरस्वती लिखता है
८-मजिरस्मा इति-अस्मै साधु शब्दबुभुत्सवे पाणिनिना धातुपाठे मृजूष शुद्धौ इत्युपदिष्ट इति ।
अर्थात्-इस साधुशब्द को जानने की इच्छावाले [शिष्य] के लिये पाणिनि ने धातुपाठ में 'मृजूष शुद्धौ' धातु का उपदेश किया है।
इसी पर छाया-व्याख्याकार वैद्यनाथ पायगुण्ड ने भी लिखा है--
E-"पाणिनिना प्रत्ययविशेषानाश्रयेण 'मृजूष् शुद्धौ' इति धातुपाठ उपदिष्ट इत्यर्थः ।
अर्थात् पाणिनि ने किसी प्रत्ययविशेष का आश्रयण न करके 'मृजूष शुद्धौ धातु का धातुपाठ में उपदेश किया है।
१०--पदमञ्जरीकार हरदत्त लिखता हैं
१. महाभाष्यसिद्धान्तरत्नप्रकाश नाम्नी व्याख्या, हमारा हस्तलेख, पृष्ठ २११ । 'महाभाष्यप्रदीप-व्याख्गनानि' के अन्तर्गत, भाग १, पृष्ठ २३७ । ___२. नवाह्निक निर्णयसागर सं०, पृष्ठ १४६, कालम २, टि. ११॥