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२/७ घातुपाठ के प्रचक्ता और व्याख्याता (२) ४६
३--'इदं तहि प्रयोजनम् - अोलस्जी लग्नः। निष्ठादेशः सिद्धो वक्तव्यः। नेड्वशिकृतीप्रतिषेधो यथा स्यात् । ईदित्करणं च न वक्तव्यं भवति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । क्रियते न्यास एव ।' महा० ८।२।६।
यहां महाभाष्यकार ने धातुपाठस्थ 'पोलस्जी' के ईदित्करण को ५ प्रमाण मान कर 'निष्ठादेशः षत्वस्वरप्रत्ययेड्विधिषु' वार्तिकस्थ इट्विधि-प्रयोजन का खण्डन किया है।" ___४–'अथवा आचार्यप्रवृत्तिपियति -नैवंजातीयकानामिद्विधिभवतीति, यदयमिरितः कांश्चिन्नुमनुषक्तान् पठति-उबुन्दिर् निशासने, स्कन्दिर् गतिशोषणयोः।' महा० १३७॥ ___ अर्थात् -- प्राचार्य की प्रवृत्ति (=व्यवहार) बताता है कि इस प्रकार की धातुप्रों में [इकार की] इत्संज्ञा [मानकर नुमागम] की विधि नहीं होती, जो वह किन्हीं 'इरित्' धातुओं को नुम् से युक्त पढ़ता है । यथा-उबुन्दिर्, स्कन्दिर् । ___ महाभाष्यकार प्राचार्य शब्द का व्यवहार पाणिनि तथा कात्यायन १५ के लिए हो करते हैं । इस वाक्य में प्राचार्य पद से कात्यायन का निर्देश किसी प्रकार नहीं हो सकता । अतः यहाँ प्राचार्य पद पाणिनि के लिए ही प्रयुक्त हुअा है, यह स्पष्ट है ।
उक्त वाक्य में जो प्राचार्य 'ज्ञापयति' क्रिया का कर्ता है, वही 'पठति' (धातुपाठ को पढ़ता है) क्रिया का भी कर्ता है । इस वाक्य- २० रचना से स्पष्ट हैं कि पाणिनि ही ज्ञापन करता है, और वही नुम्युक्त उबुन्दिर् आदि धातुओं को पढ़ता है। यह पाठ निश्चय ही धातुपाठान्तर्गत है।
५-'तथाजातीयकाः खल्वाचार्येण स्वरितजितः पठिता य उभयवन्तः, येषां कर्बभिप्रायं चाकभिप्रायं च क्रियाफलमस्ति । महा० २५ १॥३॥७२॥
१. भाष्य के उक्त वचन की व्याख्या करते हुए नागेश ने 'ईदित्करणं न वक्तव्यम्' का तात्पर्य 'श्वीदितो निष्ठायाम्' (अ० ७।२।१४) सूत्रस्थ ईदित्करण दर्शाया है। वह चिन्त्य है । यहां क्रियते न्यास एव' का तात्पर्य भी धातुपाठस्थ ईदित्करण से है, न कि सूत्रपाठस्थ ईदितग्रहण से।