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स्वाभाविक है और अस्वस्थता के काल में किए कार्य में तो उनकी सम्भावना और भी अधिक स्वाभाविक है। मैं अपनी त्रुटियों और न्यूनतामों से स्वयं परिरिचित हूं, परन्तु जिन परिस्थितियों में यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, इससे अधिक मैं कुछ भी प्रयास करने में असमर्थ था । अतः अवशिष्ट रही त्रुटियों के लिए पाठक महानुभावों से क्षमा चाहता हूं । यदि इस भाग के पुनम द्रण का संयोग उपस्थित हो सका, तो उस समय उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया जायेगा।
प्रथम भाग के सम्बन्ध में यतः मेरा 'संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास' अपने विषय का प्रथम ग्रन्थ है। इसलिए ग्रन्थ के प्रका. शित होने पर सभी प्रकार की विचारधाराओं के माननेवाले विद्वानों और लेखकों ने इस ग्रन्थ से बहुत लाभ उटाया। कतिपय संकुचित मनोवृत्ति तथा पाश्चात्त्य कल्पित ऐतिहासिक मतों को बिना परीक्षा किए स्वीकार करनेवाले 'परप्रत्ययनेयबुद्धि' रूढ़िवादी लेखकों के अतिरिक्त प्रायः सभी विद्वानों ने प्रथम भाग का स्वागत किया। आगरा पञ्जाब आदि विश्वविद्यालयों ने संस्कृत एम० ए० में इसे पाठ्य-ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया। संस्कृत विश्वविद्यालय' (भूतपूर्व राजकीय संस्कृत महाविद्यालय) वाराणसी आदि की व्याकरणाचार्य परीक्षा के स्वशास्त्रीय इतिहासविषयक पत्र के लिए यह एकमात्र सहायक ग्रन्थ बना। उत्तरप्रदेश राज्य ने इस ग्रन्थ की उपयोगिता का मूल्यांकन करते हुए इस पर ६०० रु० पारितोषिक प्रदान किया।
गत ग्यारह वर्षों में इस ग्रन्थ से अनेक लेखकों ने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सहायता ली। अनेक महानुभावों ने इस ग्रन्थ के आश्रय से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बहुत से लेख लिखे । अधिकांश विद्वज्जनों ने हमारे ग्रन्थ का मूल्यांकन करते हुए और अस्तेय की भावना रखते हए नाम-निर्देश-पूर्वक ग्रन्थ का उल्लेख किया। किन्तु ऐसे भी अनेक विद्वन्महानुभाव हैं, जिन्होंने हमारे ग्रन्थ से विशिष्ट सहायता ली, कुछ लेखकों ने पूरे-पूरे प्रकरणों को शब्दान्तर में ढालकर लेख लिखे, परन्तु कहीं पर भी ग्रन्थ का उल्लेख करना उचित न समझा। अस्तु! हम तो केवल इतने से ही अपने परिश्रम को सफल समझते हैं कि
१. अब इसका नाम 'सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय' है । .