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गत अप्रैल में द्वितीय भाग के मुद्रण की काशी में व्यवस्था की । मुद्रण कार्य आरम्भ हुआ । इसी बीच अगस्त मास में रोग की भयकरता बढ़ गई । औषधोपचार से किसी प्रकार शान्ति न मिलने पर शल्य-चिकित्सा का आश्रय लेना अनिवार्य हो गया, और ५ अगस्त को वृक्क की शल्य चिकित्सा करानी पडी, और कई मास इसी निमित्त लग गये । रोगवृद्धि से पूर्व प्रेस में पूरी कापी नहीं भेजी थी, अतः प्रेषित कापी के समाप्त होने पर मुद्रण कार्य रुक गया । कुछ स्वस्थ होने पर अगली कापी प्रेस में भेजी, परन्तु मध्य में रुके हुए कार्य के पुनः प्रारम्भ होने में भी समय लगता स्वाभाविक था । इस प्रकार जो कार्य गत अक्टूबर १९६१ तक समाप्त होने वाला था, वह अब अप्रैल १९६२ में जाकर समाप्त हो रहा है । पुनरपि यह परम सन्तोष का विषय है कि स्वस्थ हो जाने से ग्रन्थ पूरा तो हो गया, अन्यथा अधूरा ही रह जाता ।
द्वितीय भाग का विषय - इस भाग में व्याकरण- शास्त्र के साथ साक्षात् अथवा परम्परा से कथमपि सम्बन्ध रखनेवाले धातुपाठ, गणपाठ, उगादि सूत्र, लिङ्गानुशासन, परिभाषापाठ, फिट्-सूत्र, प्रातिशाख्य, व्याकरण विषयक दार्शनिक ग्रन्थ, श्रोर लक्ष्य - प्रधान काव्य आदि के प्रवक्ता, प्रणेता और व्याख्याता प्राचार्यों के इतिवृत्त पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है ।
वैसे तो ब्याकरण-शास्त्र के इतिहास पर मेरे से पूर्व किसी भी लेखक ने किसी भी भाषा में क्रमबद्ध और विस्तृत रूप से नहीं लिखा, पुनरपि द्वितीय भाग में वर्णित प्रकरण तो इतिहास-लेखकों से प्रायः सर्वथा अछूते ही हैं। इसलिए इस भाग में जो कुछ भी लिखा गया है, प्रायः उसे मैंने प्रथम बार ही लिखने का प्रयास किया है । प्रत्येक प्रारम्भिक प्रयत्न में कुछ न कुछ त्रुटियों और न्यूनतानों का रहना
१. इस भाग में केवल 'गणपाठ' का प्रकरण ऐसा है, जिस पर मेरे मित्र प्रो० कपिलदेव जी साहित्याचार्य एम० ए०, पीएच डी० ने मुझसे पूर्व विस्तृत रूप से लिखा है और उसका प्रथमं भांग 'गणपाठ की परम्परा और प्राचार्य पाणिनि' इसी प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित हुआ है । इस ग्रन्थ से 'गणपाठ' प्रकरण के लिखने में महती सहायता मिली है, परन्तु हम दोनों की दृष्टि में अन्तर होने से मेरे द्वारा लिखे गये इस प्रकरण में भी स्ववैशिष्ट्य विद्यमान है।