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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२)
उस ग्रन्थ के प्रवक्ता द्वारा ग्रथित नहीं होती । प्रवक्ता लोग पूर्वतः विद्यमान शास्त्र के परिष्कारकमात्र होते हैं, सम्पूर्ण वर्णानुपूर्वी के रचयिता नहीं होते । प्रोक्त ग्रन्थों में प्रवक्ता का स्वोपज्ञ अंश और स्वीय वर्णानुपूर्वी स्वल्पमात्र में होती है । इस प्रकार के प्रोक्तविभाग को ही आयुर्वेदीय चरक संहिता में 'संस्कृत' पद से कहा गया है । ५ चरक में संस्कृत का स्वरूप इस प्रकार दर्शाया हैविस्तारयति शोक्त' संक्षिपत्यतिविस्तरम् । संस्कर्ता कुरुते तन्त्रं पुराणं च पुनर्नवम् ॥ श्रतस्तत्रोत्तममिदं चरकेणातिबुद्धिना ।
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संस्कृतं तत् 11 सिद्धि० ६० १२।६६,६७।। वस्तुतः संस्कृत वाङ्मय की स्थिति यह है कि उसके जितने भी मूलभूत शास्त्रपद अलङ्कृत ग्रन्थ सम्प्रति उपलब्ध होते हैं, वे सब प्रोक्त ग्रन्थ हैं, कृत नहीं । अष्टाध्यायी और धातुपाठ भी पाणिनि के प्रोक्त ग्रन्थ हैं। सभी वैयाकरण पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयं शब्दानुशासनम् ' प्रयोग करते है, न कि पाणिनिना कृतम् । यतः प्रोक्त ग्रन्थों १५ में बहुत-सी वर्णानुपूर्वी अथवा बहुत-सा अंश पूर्व ग्रन्थ अथवा ग्रन्थों का होता है, और कुछ अंश प्रवक्ता का अपना भी होता है । इसलिए प्रायः सभी प्रोक्त ग्रन्थों में कहीं-कहीं पर परस्पर विरोध प्रौर ग्रानक्य दिखाई पड़ता है । प्रोक्त ग्रन्थों के इस विरोध और प्रानर्थक्य का समाधान पूर्वाचार्य पूर्वसूत्र निर्देश हेतु द्वारा करते हैं । यही समाधान का राजमार्ग अष्टाध्यायो और धातुपाठ के विरोधपरिहार के लिए युक्त है । प्रोक्त ग्रन्थों में विरोध- दर्शन मात्र से भिन्न कर्तृ कत्व ( = प्रवक्तृत्व ) की कल्पना करना अन्याय्य है ।
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श्रान्ति का अन्य कारण - पाणिनीय धातुपाठ का जो पाठ सम्प्रति उपलब्ध होता है, वह आज उसी रूप में नहीं मिलता, जैसा उसका २५ पाणिनि ने प्रवचन किया था । उसके पाठ का बहुत बार परिष्कार हो चुका है । ( इस विषय में हम आगे विस्तार से लिखेंगे) । अतः उत्तरवतीं परिष्कृत पाठ के प्राधार पर मूल ग्रन्थ के विषय में जो भी श्रालोचना की जाएगी, वह युक्त न होगी । इस दृष्टि से भी यह चिन्तनीय है कि धातुपाठ के जिन अंशों के कारण न्यासकार ने अष्टा- ३० ध्यायी के साथ विरोध दर्शाया है, वे अंश मूल ग्रन्थ के ही हैं, अथवा उत्तरवर्ती परिष्कार के कारण सन्निविष्ट हुए हैं ।