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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
प्रतिपादन में जो दो हेतु दिए हैं, वे वस्तुतः हेत्वाभास हैं । अपि च, न्यासकार के उपयुक्त वचनों से प्रतीत होता है कि कृत और प्रोक्त ग्रन्थों में जो मौलिक भेद है, उसे वह भली प्रकार नहीं जानता था। उसने अष्टाध्यायी और धातुपाठ को पाणिनि के कृत-ग्रन्थ मानकर आलोचना की है। यदि कृत-ग्रन्थ मानकर केवल अष्टाध्यायो की भी आलोचना की जाए, तो अष्टाध्यायी में भी अनेक स्थानों में विरोध दिखाई पड़ता है । यथा
१-ौङ आपः (७।१।१८) सूत्र में 'मौङ' पद से औ-प्रौट प्रत्ययों का ग्रहण अभिप्रेत है । परन्तु पाणिनि ने सम्पूर्ण अष्टाध्यायी १० में कहीं पर भी 'प्रो-प्रौट' की औङ संज्ञा नहीं कही।
- २-प्राङि चापः; प्राङो नाऽस्त्रियाम् (७।३।१०५, १२०) सूत्रों में प्राङ पद से तृतीय के एकवचन 'टा' का निर्देश अभिप्रेत है। पाणिनि ने कहीं पर भी 'टा' का 'पाङ' संकेत नहीं किया।
इसी प्रकार अनेक स्थानों में अष्टाध्यायी में पारस्परिक विरोध १५ उपस्थित किये जा सकते हैं। यदि अष्टाध्यायी के इन विरोधों का
परिहार 'पूर्वसूत्रनिर्देश" हेतु द्वारा किया जा सकता है, तो इसी हेतु से अष्टाध्यायी और धातुपाठ के पारस्परिक विरोधों का परिहार क्यों न किया जाए ? वस्तुतः पूर्वसूत्र-निर्देश हेतु ही 'अष्टाध्यायी पाणिनि का कृत ग्रन्थ नहीं है, अपि तु प्रोक्त ग्रन्थ है' सिद्धान्त का प्रतिपादक है। __ कृत और प्रोक्त में भेद-वैयाकरणों ने सम्पूर्ण वाङमय को दृष्टप्रोक्त-उपज्ञात-कृत-व्याख्यान इन पांच विभागों में बांटा है। इसलिए पाणिनि ने तेन प्रोक्तम् (४।३।१०१); कृते ग्रन्थे (४।३।११६) सूत्रों में कृत और प्रोक्त ग्रन्थों का भेद से निर्देश किया है।
कृत ग्रन्थों में ग्रन्थ की सम्पूर्ण वर्णानुपूर्वी उस ग्रन्थ के रचयिता " द्वारा ही ग्रथित होती है, परन्तु प्रोक्त ग्रन्थों की सम्पूर्ण वर्णानुपूर्वी
१. निर्देशोऽयं पूर्वसूत्रेण वा स्यात् । महा० ७।१।१८ । इसी प्रकार अन्यत्र १।२।६८ ॥ ५॥१।१४ ।। ।। ६।१।१६३ ॥ ८।४७ आदि में भी पूर्वसूत्रनिर्देश दर्शाया है।
२. यथाक्रम-४।२७ ॥ ४।३।१०१ ॥ ४॥३।११५॥ ४१३ ७७,११६ ॥ ३० ४३६६ ॥