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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२)
एतत् गणकारः प्रष्टव्यः, न सूत्रकारः । अन्यो हि गणकारोऽन्यश्च सूत्रकार इत्युक्त प्राक् । ७।४।७५: भाग २, पृष्ठ ८७३। __ अर्थात्-यदि यहां (निजां त्रयाणां गुणः श्लौ ७।४।७५ सूत्र में) 'त्रि' ग्रहण किया है, तो [धातुपाठ में] निजादियों के अन्त में [समाप्त्यर्थद्योतक] वृत्करण का क्या प्रयोजन है ? [उत्तर-] यह गण- ५ कार (=धातुपाठ-प्रवक्ता) से पूछना चाहिए, सूत्रकार से नहीं। अन्य ही गणकार है, अन्य सूत्रकार, यह पहले कह चुके हैं।
यहां न्यासकार ने स्पष्ट ही धातुपाठ के पाणिनीय-प्रवचन का प्रत्याख्यान किया है।
विशेष-इन दोनों उद्धरणों में न्यासकार ने 'धातुपाठ-प्रवक्ता १० सूत्रकार पाणिनि नहीं हो सकता, यह पूर्व कह चुके' लिखा है । परन्तु हमें सम्पूर्ण न्यास में इन दोनों उद्धरणों से पूर्व कहीं पर भी पाणिनि के धातुपाठ-प्रवक्तृत्व का प्रतिषेधक वचन नहीं मिला। हां, प्रातिपदिक गण (=गणपाठ) के अपाणिनीयत्व-प्रतिपादक-वचन तो पूर्वत्र उपलब्ध होता है । हो सकता है, न्यासकार ने 'गण' शब्द से सामान्यतया १५ धातुगण और प्रातिपदिकगण दोनों का निर्देश किया हो ।
न्यासकार का स्ववचन-विरोध-हमने न्यासकार के दो वचन ऊपर उद्धृत किये हैं, जिनसे स्पष्ट है कि वह धातूपाठ को पाणिनिप्रोक्त नहीं मानता। अब हम उसका एक ऐसा वचन उद्धृत करते हैं, जिसमें उसने धातुपाठ को पाणिनि का प्रवचन स्वीकार किया है। २० यथा
'न तस्य पाणिनेरिव 'अस भुवि' इति गणपाठः' । १।३।२२, भाग १, पृष्ठ २२६ । । अर्थात् --उस (=प्रापिशलि) का पाणिनि के समान 'अस भुवि' ऐसा गण (=धातुपाठ धातुगण) का पाठ नहीं है।
इस उद्धरण में जिनेन्द्रबुद्धि ने स्पष्ट ही आपिशलि के समान पाणिनि को भी गणकार (=धातुपाठ-प्रवक्ता) स्वीकार किया है। न्यायशास्त्रानुसार इस स्ववचन-विरोध के कारण न्यागकार के निग्रहस्थान में आ जाने से उसका वचन किसी तत्त्व के निर्णय में प्रमाण नहीं हो सकता।
३० न्यासकार की म्रान्ति-न्यासकार ने धातुपाठ के अपाणिनीयत्व- :