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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता ( १ )
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काशिका के उक्त पाठ पर हरदत्त भी लिखता है - 'स्तः सन्तीत्यादौ सकारमात्रस्य दर्शनात् 'स भुवि' इत्तेव धातुः पाठ्यः । प्रस्तीत्यादौ पिति सार्वधातुके डागमो विधेयः । श्रास्तामासन्नित्यादौ प्राडागमः स्याद् इत्यापिशला मन्यन्ते ।'
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अर्थात् - ' स्तः सन्ति' आदि में सकारमात्र दिखाई पड़ने से 'स ५ ' ऐसा ही धातु पढ़ना चाहिए। श्रस्ति आदि में प्रट् और प्रास्ताम्, श्रासन् आदि में प्राट् श्रागम का विधान करना चाहिए, ऐसा आपि - शलिप्रोक्त शास्त्र के अध्येता मानते हैं ।
२ – स्कन्दस्वामी निरुक्त व्याख्या २२ में लिखता है -
'उजिर्ती छान्दसौ धातू व्याकरणस्य शाखान्तर श्रपिशलादौ १० स्मरणात्' ।
अर्थात् – 'उष' और 'घृ' ये छान्दस धातुएं हैं, ऐसा व्याकरणशास्त्र के शाखान्तर आपिशल आदि में स्मृत है ।
३ – वामन काशिका ७|१|१० में अनिट् कारिका की व्याख्या में लिखता है
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क - 'इतरौ ( रिहिलिही) तु धातुषु न पठ्येते, कैश्चिद - भ्युपगम्येते' |
इस पर न्यासकार लिखता है -
'कैश्चिदिति-- प्रापिशलिप्रभृतिभिरिति । भाग २, पृष्ठ ६६८ । ख -- ' तन्त्रान्तरे चत्वारोऽपरे पठ्यन्ते - सहिमुहिरिहिलिहयः ।' इस पर न्यासकार ने लिखा हैं
'तन्त्रान्तर इति -- प्रापिश लेर्व्याकरणे | भाग २, पृष्ठ ६६८ । ग - ' तथा च तन्त्रान्तरे निजिविजिष्वञ्जवर्जम् इत्युक्तम् ।' इस पर भी न्यासकार ने लिखा है
'तन्त्रान्तर इति -- श्रपिशलिव्याकरणे ।' भाग २, पृष्ठ ७०१ । इन तीन पाठों में से प्रथम दो पाठ साक्षात् धातुपाठ -विषयक हैं । प्रन्तिम पाठ सम्भवतः अनुदात्त धातु-निर्देशक पाठ का अवयव हैं ।
४ - पाणिनीय धातुपाठ का व्याख्याता 'मैत्रेय'रक्षित' 'तु' धातु के विषय में लिखता है -
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