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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
. यदि यास्क के उक्त वाक्य में शाकटायन की निन्दा अभिप्रेत होती, जैसा कि स्कन्दस्वामी ने पक्षान्तर में लिखा है, तो वैयाकरणनिकाय और नरुक्तसम्प्रदाय में शाकटायन की इतनी प्रशंसा न होती।
यद्यपि शाकटायन-प्रोक्त धातुपाठ के साक्षात् उद्धरण प्राचीन ५ ग्रन्थों में हमें नहीं मिले, तथापि यास्क और पतञ्जलि के उपर्युक्त
उल्लेख से स्पष्ट है कि सम्पूर्ण नामशब्दों को प्राख्यातज=धातुज माननेवाले वैयाकरणमूर्धन्य शाकटायन ने धातुपाठ का प्रवचन भी अवश्य किया था । अन्यथा सम्पूर्ण नामशब्दों के धातुजत्व का प्रति
पादन करने में वह कभी समर्थ न होता । इस से यह भी सुव्यक्त है १० कि शाकटायन ने जिस धातुपाठ का प्रवचन किया था, वह पाणिनीय धातुपाठ की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत रहा होगा।
प्राचार्य शाकटायन के काल आदि के विषय में हम पूर्व प्रथम भाग के चतुर्थ अध्याय में विस्तार से लिख चके हैं। अत: उसके यहां
पुनः पिष्टपेषण की आवश्यकता नहीं है। १५ ६. आपिशलि (३००० वि० पूर्व)
यद्यपि आचार्य प्रापिशलि का धातुपाठ सम्प्रति उपलब्ध नहीं है, तथापि उसके धातुपाठ के उद्धरण अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। यथा . १-महाभाष्य १।३।२२ में निम्न उदाहरण हैं
'अस्ति सकारमातिष्ठते । प्रागमौ गुणवृद्धी प्रातिष्ठते ।' २० ये उदाहरण काशिका १।३।२२ में भी उपलब्ध होते हैं । इनके विषय में न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि लिखता है-.
'सकारमात्रमस्तिधातुमापिलिराचार्यः प्रतिजानीते । तथाहिन तस्य पाणिनेरिव 'अस भुवि' इति गणपाठः । किं तहि ? 'स भुवि
इति स पठति । प्रागमौ गुणवृद्धी प्रातिष्ठत इति । स त्वागमौ गुण२५ वृद्धी प्रातिष्ठते । एवं हि स प्रतिजानीते इत्यर्थः।
- अर्थात् प्रापिशलि अायाय 'अस' धातु को 'स' मात्र स्वीकार करता है। उसका पाणिनि के समान 'असि भवि' पाठ नहीं है, अपि तु 'स भुवि' ऐसा वह पढ़ता है । [अस्ति आदि में गुण (=अट)
और [प्रासीत् आदि में] वृद्धि (=पाट) का पागम मानना है। इस ३० प्रकार वह [रूपसिद्धि] स्वीकार करता है।