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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
का निपातन किया है (द्र०-द० उ० १०७; पं० उ० ३८०)। यास्क ने भी निरुक्त १११४ में इसे कृदन्त लिखा हैं । परन्तु पाणिनोय वैयाकरण होमोऽस्यास्तीति होमी मत्वर्थक इनिप्रत्ययान्त मानते हैं । पतञ्जलि ने भी कृदन्त वध्य शब्द के लिए हनो वा वध च, तद्धितो वा (३।१।६७) लिखकर वधमर्हति वध्यः व्युत्पत्ति दर्शाई है । द्राधिमा नेदिष्ठ आदि सम्प्रति तद्धितान्त समझे जाने वाले प्रयोग भी पुराकाल में कृदन्त माने जाते थे । क्षीरस्वामी लिखता है
द्राधिमादयः कस्मिंश्चिद् व्याकरणे धातोरेव साधिताः, एवं नेदिष्ठादयो नेदत्यादेः ।' क्षीरतरङ्गिणी १८०, पृष्ठ ३१ ।' __३–पाणिनीय मतानुसार यत् क्यप् ण्यत् प्रत्यय विशिष्ट घातुओं
से व्यवस्थितरूप में होते हैं । यथा-अजन्तों से यत्, इण् आदि परिगणित धातुओं से क्यप्, ऋवर्णान्त और हलन्तों से ण्यत् । ___ चन्नवीर कवि ने अपनी व्याख्या में अनेक स्थानों पर कृदन्त शब्दों
का जिस प्रकार निर्देश किया है, उससे प्रतीत होता है कि यत क्यप १५ ण्यत् प्रत्यय तव्यत् आदि के समान सामान्य हैं, अर्थात सब धातूरों से होते हैं । यथा
रभ-रभ्यम्, राभ्यम् । का० धा० ११५६३, पृष्ठ ९४ । लभ लभ्यम्, लाभ्यम् । का० धा० ११५६४, पृष्ठ १४ । रुच-रुच्यम्, रोच्यम् । का० धा० ११६६५, पृष्ठ १४ । मिद-मेद्यम्, मैद्यम् । का० घा० ११५६७, पृष्ठ ६५ । घट-घट्यम्, घोट्यम्, घोट्यम् । का० धा० ११५६६,
पृष्ठ ६५।
___ इनमें प्रथम दो धातुओं के यत् और ण्यत् प्रत्यय के रूप दर्शाए
हैं। पाणिनीय मतानुसार पोरदुपधात् (अष्टा० ३।१।६८) नियम से २५ यत् ही होगा, ण्यत् नहीं । तृतीय धातु के क्यप् और ण्यत् के रूप लिखे
हैं। पाणिनीय मतानुसार (अष्टा० ३।१।११४) रुच्य में कर्ता में क्यप निपातित है। भावकर्म में यत् ही होता है, ण्यत् की प्राप्ति तो कथंचित् भी सम्भव नहीं। मिद धातु के यत् और ण्यत् के रूप
उद्धृत किए हैं । पाणिनीय मत में मिद से यत् नहीं होता। घुट धातु ३० के क्रमशः क्यप्, यत्, ण्यत् तीनों प्रत्ययों के रूप दर्शाए हैं। पाणिनीय
मतानुसार केवल ण्यत् ही होना चाहिए।