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३६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास करके प्रकृत्येकाच् (अष्टा० ६।४।१६३) द्वारा प्रकृतिभाव करके श्वानयति रूप दर्शाते हैं। इतना ही नहीं, श्वन धातु से अनायास सिद्ध होने वाले श्वन् प्रातिपदिक की निष्पत्ति पाणिनीय क्याकरण श्वन्न क्षन्'
आदि सूत्र में निपातन द्वारा शिव धातु के इकार का लोप करके ५ . दर्शाते हैं।
३-पाणिनि ने जिन-जिन धातुओं को छान्दस माना है, उन्हें काशकृत्स्न धातपाठ में अन्य सामान्य धातुओं के समान पढ़ा है। इससे विदित होता है कि काशकृत्स्न-प्रोक्त धातुपाठ का वह काल है, जब उक्त धातुएं लोक में व्यवहृत थीं । यतः पाणिनि ने इन्हें छान्दस कहा है, अतः 'काशकृत्स्न धातुपाठ' पाणिनि से पूर्ववर्ती है। __४-काशकृत्स्न के जो सूत्र उपलब्ध हुए हैं, उनमें जिस प्रकार उदात्त आदि स्वर की निष्पत्ति के लिए अनुबन्धों का पूर्ण ध्यान रखा गया है, उसी प्रकार तत्तद्गणों के विकरणों के अन् आदि अनुबन्धों में
भी स्वर का ध्यान रखा गया है। १५ प्रत्ययों के अनुबन्ध-निर्देश में स्वर का ध्यान रखना, इस बात
का प्रमाण है कि काशकृत्स्न शब्दानुशासन और धातुपाठ के प्रवचन का काल वह हैं, जब लोकभाषा में स्वर-निर्देश का प्रचलन था।
उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि काशकृत्स्न धातपाठ आचार्य पाणिनि, चन्द्रगोमी और कातन्त्र-प्रवक्ता से प्राचीन हैं। अतः इसके प्रामाण्य पर उंगली उठाना दुःसाहसमात्र होगा।
व्याख्याकार चन्नवीर कवि इस धातुणठ पर जो टीका उपलब्ध हुई है, वह चन्नवोर कवि कृत है। यह टीका कन्नड भाषा में है । चन्नवीर कवि कृत यह व्याख्या अत्यन्त संक्षिप्त है ।
परिचय- इस ग्रन्थ के प्रत्येक गण के अन्त में टीकाकार ने अपना परिचय दिया है। यथा
१. द० उ०६५५; पं० उ० १११४६॥ २. द्र०-द० उ० वृत्ति, पृष्ठ २४२ ।
३. यथा---जुहोत्यादि में 'छन्दसि' सूत्र से 'घ' आदि का छान्दसत्व, ३० स्वादिगण में 'छन्दसि' सूत्र द्वारा 'प्रह' आदि का छान्दसत्व ।