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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
प्राचीन ग्रन्थ के, जिससे उनके द्वारा प्रचलित की गई भ्रान्त धारका खण्डन होता हो, अचानक उपलब्ध हो जाने पर उसे विना किसी प्रमाण के कूट ग्रन्थ कहने का दुस्साहस करते हैं । कौटलीय अर्थशास्त्र और भास के नाटकों के अचानक उपलब्ध हो जाने पर ५ पाश्चात्य विद्वानों ने इन ग्रन्थों को कूट ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए एड़ी से चोटी पर्यन्त बल लगाया। क्योंकि इन ग्रन्थों के द्वारा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रसारित कई मान्यताओं का निराकरण होता था ।
'काशकृत्स्न धातुपाठ' भी ऐसा हो विशिष्ट ग्रन्थ है । इसकी उपलब्धि से जहां व्याकरणशास्त्र के इतिहास के विषय में नया प्रकाश १० पड़ता है, वहां इससे पाश्चात्य विद्वानों द्वारा निर्मित अनेक भ्रान्त मतों का भी निराकरण होता है और पाश्चात्य तथाकथित भाषा - विज्ञान के अनेक कल्पित मतों का खण्डन होता है । अतः इस ग्रन्थ पर भो उनकी क्रूर दृष्टि अवश्य पड़ेगी, और वे इसे कूट ग्रन्थ निद्ध करने की चेष्टा करेंगे । इसलिए हम इसकी प्रामाणिकता के साधक कतिपय १५ प्रमाण उपस्थित करते हैं
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१ - बौद्ध वैयाकरण चन्द्रगोमी का 'शब्दानुशासन' प्रसिद्ध है । चन्द्रगोमी सूत्रपाठ में प्रायः पाणिनीय सूत्रपाठ तथा वार्तिकपाठ का अनुसरण करता है । परन्तु धातुपाठ में वह पाणिनीय धातुपाठ का अनुसरण नहीं करता । चन्द्राचार्य ने धातुपाठ में प्रतिगण प्रथम परस्मैपदी धातुएं पढ़ी हैं, तत्पश्चात् ग्रात्मनेपदी, और अन्त में उभयपदी । 'काशकृत्स्न धातुपाठ' की उपलब्धि से पूर्व हमारे मन में यह संशय रहता था कि चन्द्राचार्य ने धातुपाठ में अपना स्वतन्त्र नया क्रम रखा, अथवा इसमें भी सूत्रपाठ के समान किसी प्राचीन धातुपाठ का अनुसरण किया है ? 'काशकृत्स्न धातुपाठ' के उपलब्ध हो जाने पर २५ यह निश्चय हो गया कि चन्द्रगोमी ने धातुपाठ में 'काशकृत्स्न धातुपाठ' का प्राधान्य से अनुसरण किया है । इस समानता से स्पष्ट हैं कि 'काशकृत्स्न धातुपाठ' चन्द्रगोमी से पूर्व निश्चित रूप से विद्यमान था । २ – काशकृत्स्न और कातन्त्र' के धातुपाठों की तुलना करने
१. ' कातन्त्र धातुपाठ' के उपलब्ध न होने से लिविश द्वारा क्षीरतरङ्गिणी के अन्त में प्रकाशित शर्ववर्मा कृत धातुपाठ के तिब्बती अनुवाद को देखकर हमने उसके मूल संस्कृत पाठ को ही कातन्त्र का धातुपाठ मान लिया था । परन्तु
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