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२/५ धातुपाठ के प्रचक्ता और व्याख्याता (१) ३३
ख-पाणिनि द्वारा परस्मैपदियों में पठित वस निवासे टुप्रोश्वि गतिवृद्धयोः धातुएं भी 'काशकृत्स्न धातुपाठ' में उभयपदी मानो गई हैं (११७०५,७०७)।
७-काशकृत्स्न धातुपाठ में कई ऐसी मूलभूत प्रकृतियां पढ़ी हैं, जिनसे निष्पन्न शब्दों में पाणिनीय प्रक्रियावत् लोप पागम वर्णविकार ५ आदि नहीं करने पड़ते। यथा__ क-'नौ' शब्द की सिद्धि पाणिनीय वैयाकरण ग्लानुदिभ्यां डौः (द० उ० २।१२; पं० उ० २।६५) सूत्र से दर्शाते हैं। प्रत्यय के डित होने से नुद् के उद् भाग का लोप होता है। परन्तु 'काशकृत्स्न धातूपाठ' में 'णौ प्लवने' स्वतन्त्र धातु पठित है (११४२७)। इससे । 'क्विप्' प्रत्यय होकर विना किसी झंझट के 'नौ' शब्द निष्पन्न हो जाता है।
ख–'क्ष्मा पद की सिद्धि के लिए 'क्षमूष सहने' धातु के उपधा का लोप करना ड़ता है। परन्तु 'काशकृत्स्न धातुपाठ' में 'क्ष्मै धारणे' स्वतन्त्र धातु पढ़ी है (१।४८३) । उससे एजन्तों को सामान्यविहित १५ प्रात्व होकर क्विप् प्रत्यय में 'क्ष्मा' पद अनायास उपपन्न हो जाता है।
इस प्रकार 'काशकृत्स्न धातुपाठ' में अनेक वैशिष्ट्य उपलब्ध होते हैं। यहां हमने दिङ मात्र निदर्शित किए हैं।
काशकृत्स्न धातुपाठ का उत्तरकालीन तन्त्रों पर प्रभावकाशकृत्स्न धातुपाठ का उत्तरकालीन तन्त्रों के धातुपाठों पर प्रत्यक्ष २० प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । कातन्त्रीय धातुपाठ तो काशकृत्स्न धातुपाठ का ही संक्षिप्त संस्करण है, यह हम आगे लिखेंगे। हैम और चान्द्र धातुपाठ पर भी काशकृत्स्न धातुपाठ का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। यथा
१-जैसे काशकृत्स्न धातुपाठ में | गण हैं, और जुहोत्यादि को २५ अदाद्यन्तर्गत पढ़ा है- ऐसा ही 'हैम धातुपाठ' में भी मिलता है।
२--जैस काशकृत्स्न धातुपाठ के प्रत्येक गण में पहले समस्त परस्मैपदी धातुएं पढ़ी हैं, तत्पश्चात् आत्मनेपदी और उभयपदी, यही क्रम 'चान्द्र धातुपाठ' एवं 'हैम धातुपाठ' में भी अपनाया गया है। धातुपाठ का प्रामाणिकत्व
३० पाश्चात्य विद्वानों का प्रायः यह स्वभाव है कि वे किसी ऐसे