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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
५-पाणिति द्वारा अपठित, परन्तु लोक वेद में उपलभ्यमान बहुत सी धातुए ‘काशकृत्स्न धातुपाठ' में उपलब्ध होती हैं । यथा___ क-अथर्व की प्रकृति 'थर्व' धातु' हिंसार्थ में पठित है (१।२०४) ।
ख-हिन्दी में प्रयुक्त 'ढूढना' क्रिया को मूल प्रकृति ‘ढुढि' (=ढुण्ढ) धातु का पाठ काशकृत्स्न धातुपाठ में उपलब्ध होता है (१।१९४)। इस धातु का निर्देश स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में भी मिलता है
अन्वेषणे ढुण्डिरयं प्रथितोऽस्ति धातुः
सर्वार्थढुण्डिततया तव ढुण्ढिनाम ।' ग–वेद में मरति आदि भौवादिक प्रयोग बहुधा उपलब्ध होते हैं। हिन्दी में प्रयुज्यमान मरता है भी मरति का अपभ्रंश है, म्रियते का नहीं। 'काशकृत्स्न धातुपाठ' में मृ धातु भ्वादिगण में भी पठित है।
(१।२२४)। १५६-पाणिनि ने जिन धातुओं को परस्मैपदो अथवा आत्मनेपदी
पढ़ा है, उनमें से बहुतसी धातुओं को काशकृत्स्न ने उभयपदी माना है। यथा___ क-पाणिनि ने वद धातु का परस्मैपदियों में पाठ करके 'भासन'
आदि अर्थ-विशेषों में आत्मनेपद का विधान किया है। काशकृत्स्न २० ने इसे उभयपदियों में पढ़ा है। (१७०६)। तदनुसार वदति वदते
दोनों प्रयोग भासनादि अर्थों से अतिरिक्त भी सामान्य रूप से उपपन्न हो जाते हैं । महाभारत में वद के आत्मनेपद प्रयोग बहुधा उपलब्ध होते हैं। उन्हें पार्षत्वात् साधु मानने की आवश्यकता नहीं रहती।
१. तुलना करौ-थर्वतिश्चरतिकर्मा । निरु० ११॥१८॥ यहां अर्थवेद , धातुओं के अवेकार्थक होने से उपपन्न होता है।
२. स्कन्द, काशीखण्ड अ० ५७, श्लो० ३३, मोर संस्क०, पृष्ठ ३६३।
३. पाणिनीय धातुपाठ में 'मिमृ गतौ' धातु पढ़ी है (क्षीर० ११३१३)। पाणिनीय व्याख्याकार इसे एक धातु मानते हैं। काशकृत्स्न 'मी' 'मृ' दो धातु स्वीकार करते हैं (१।२२४) ।
४. अष्टा० ११३४७-५०॥