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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (१) ३१ घातुपाठ' में ईड ईल स्तुतौ (२०४१)' इस प्रकार डान्त लान्त भेद से दो प्रकार की पढ़ी है । मूलतः द्विविध धातुओं से निष्पन्न होने वाले इडा इला आदि शब्दों की सिद्धि के लिए डान्त लान्त पृथक्पृथक् धातु पठित होने पर डलयोरेकत्वम् आदि नियम-कल्पना की आवश्यकता ही नहीं रहती।
ख-बृहि वद्धौ इस धातु की सम नार्थक ब्रह धातु भी 'काशकृत्स्न धातुपाठ' (१।३२०) में पठित है । इसलिए ब्रह्मन् शब्द की सिद्धि के लिए बृहेर्नोऽच्च (पं० उ० ४।१५६; द० उ० ६१७४ ) सूत्र द्वारा नकार को अकारादेश और ऋ को रेफादेश करने की आवश्यकता नहीं रहती । ब्रह धातु से सामान्य सूत्र विहित मनिन् प्रत्यय से हो 'ब्रह्मन्' १० शब्द निष्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार पृथु, व्याप्तौ स्वतन्त्र धातु का पाठ (११५८३, ६६८) होने से पृथु, पृथिवी आदि शब्दों के लिए प्रथ को सम्प्रसारण आदेश करने की आवश्यकता नहीं होती।
गसिंह सिंहिका आदि शब्दों की मूल प्रकृति षिहि हिंसायाम् धातु 'काशकृत्स्न धातुपाठ' में पठित है" (१३१६) । इसलिए हिसि १५ =हिंस में वर्णव्यत्यय (=वर्णविपयय) मानकर निर्वचन दिखाने की आवश्यकता नहीं रहती।
१. यह कोष्ठान्तर्गत संख्या हमारे द्वारा संस्कृत भाषा में अनूदित कन्नड टीका के 'काशकृत्स्न-धातु-व्याख्यानम्' की है। प्रथम संख्या गण की है, दूसरी धातुसूत्र की। आगे भी इसी प्रकार सर्वत्र समझे।
२. कन्नड टीका में 'दहि बृहि बृह ब्रह वृद्धौ' इस धातुसूत्र में 'ब्रह' का पाठ करके भी व्याख्या में इसके रूप नहीं बताए । ब्रह्मन् शब्द की सिद्धि 'बहरु रो मनि' (?) सूत्र द्वारा 'ऋ' को 'र' आदेश करके दर्शाई है। कन्नड टीका का पाठ बहुत्र भ्रष्ट है।
३. प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च । द० उ० ११११३; ५० उ० २५ ११२८॥ प्रथेः षिवन् सम्प्रसारणं च । द० उ० ८।१२४; पं० उ० १।१३६ ॥ ___ 'काशकृत्स्न धातुपाठ' की कन्नडटीका में -पृथवी-प्रथ्वी शब्द भी 'प्रथ' धातु से निष्पन्न किए हैं।
४. हमारी नागराक्षर प्रति में यहां 'षिह' अपपाठ है।
५. हिसेर्वा स्याद् विपरीतस्य । निरु० ३।१८॥ हिंसे: सिंहः । महाभाष्य ३० 'हयवरट्' सूत्र तथा ३।१।१२३॥