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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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१०६-१०७ प्रथम भाग (च० सं०) पर उद्धृत कर चुके हैं। उनमें संख्या ५ चतुर्थ और ६ के श्लोक इस प्रकार हैं
गुपूधूपविच्छिपणिपनेरायः कमेस्तु पिङ् । ऋतेरियङ् चतुर्लेषु नित्यं स्वार्थ, परत्र वा ॥
इति भागुरिस्मृतेः।' गुपो वधेश्च निन्दायां क्षमायां तथा तिजः । प्रतीकारद्यर्थकाच्च कितः स्वार्थे सनो विधिः ॥
इति भागुरिस्मृतेः। इन सूत्रों में अनेक धातुत्रों का उल्लेख मिलता है । गुपू में दीर्घ २० ऊकार अनुबन्ध का निर्देश भी स्पष्ट है । अतः भागुरि प्राचार्य ने
स्वीय धातुपाठ का प्रवचन किया था, इसमें सन्देह का कोई अवसर ही नहीं है। ___ भागुरि के काल के विषय में हम पूर्व प्रथम भाग के तृतीय अध्याय में विस्तार से लिख चुके हैं।
४. काशकृत्स्न (३१०० कि० पूर्व) प्राचार्य काशकृत्स्न-द्वारा प्रोक्त शब्दानुशासन के चार सूत्र, और व्याकरणशास्त्र-सम्बन्धी एक मत हमने इस ग्रन्थ के प्रथम भाग के प्रथम संस्करण में पृष्ठ ८४ उद्धृत किये थे। उनमें प्रथम सूत्र था
धातुः साधने दिशि पुरुषे चिति तदाख्यातम् ।' २० इस सूत्र से काशकृत्स्न-प्रोक्स धातुपाठ की सम्भावना है, ऐसा हमारा पूर्व विचार था।
धातुपाठ की उपलब्धि बड़े सौभाग्य की बात है कि पाणिनि से पूर्ववर्ती प्राचाय काशकृत्स्न का सम्पूर्ण धातुपाठ उपलब्ध हो गया है। दक्खन कालेज पूना के २५ १. जगदीश तर्कालंकारकृत 'शब्दशक्तिप्रकाशिका' पृ० ४४७ (चौखम्बा संस्करण) पर उद्धृत। २. पूर्ववत् 'शब्दशक्तिप्रकाशिका, पृ० ४४७ ।
३. वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड स्वोपज्ञ व्याख्या, पृष्ठ ४० लाहौर सं० ।
४. 'काशकृत्स्न धातुपाठ' के विषय में हमने 'संस्कृत-रत्नाकर' वर्ष १७ अंक १२ में सर्वप्रथम लिखा था।