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लक्ष्य-प्रधान काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि ४६१
-हलायुध (सं० ९७५-१०५० वि०) . हलायुध ने कविरहस्य नामक एक लक्ष्य-प्रधान काव्य लिखा है । इसमें धातुओं के रूपों का विशेष निर्देश किया गया है ।
परिचय-हलायुध राष्ट्रकूट के तृतीय कृष्णराजा (सं० ६६७१०१३ वि०) का सभापण्डित था। पिङ्गल छन्दःसूत्र की मृतसञ्जी- ५ वनी टीका में वाक्पतिराज (सं० १०३१-१०५२ वि०) मुञ्ज की प्रशंसा पर इसके अनेक श्लोक उपलब्ध होते हैं । अतः प्रतीत होता हैं कि हलायुध राष्ट्रकूट के तृतीय कृष्णराजा के स्वर्गवास के उपरान्त मुञ्ज की सभा में चला गया था। अतः हलायुध का काल सामान्यतया सं० ६७५-१०५० वि० तक माना जा सकता है।
हलायुध ने कविरहस्य के प्रारम्भ में अपने को
'धातुपरायणाम्भोधिपारोत्तीर्णधीः ।' . . . . . कहा है । विशेषण सत्य है, यह उसके काव्य के अध्ययन से व्यक्त है.। इस काव्य में २७४ श्लोक हैं।
अन्य नाम-इस कविरहस्य के कविगुह्य और अपशब्दाल्यकाव्य १५ भी नामान्तर हैं। ,
अन्य ग्रन्थ -हलायुध के दो ग्रन्थ और प्रसिद्ध हैं-एक पिङ्गलछन्दःसूत्र टीका मृतसञ्जीवनी, और दूसरा अभिधानरत्नमाला नामक कोश। टीकाकार-इस काव्य पर दो टीकाएं उपलब्ध होती हैं। : २०
९-हेमचन्द्राचार्य (सं० ११४५-१२२९ वि०) प्राचार्य हेमचन्द्र ने स्वीय शब्दानुशासन के संस्कृत और प्राकृत दोनों प्रकार के लक्षणों के लक्ष्यों को दर्शाने के लिए एक महाकाव्य लिखा है, इसका नाम है-कुमारपालचरित । इसके प्रारम्भ में २० सर्ग संस्कृत में हैं, और अन्त के ८ सर्ग प्राकृत में, इसलिये इसे द्वया- १ श्रय काव्य भी कहते हैं।