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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
दिया। अतः इस महाकवि का वृत्त अन्धकारावत है । मुद्रित रावणार्जुनीय के अन्त में निम्न पुष्पिका उपलब्ध होती है - - 'कृतिस्तत्र भवतो महाप्रभावश्रीशारदादेशान्तर्वत्तिवल्लभीस्थाननिवासिनो भूमभट्टस्येति शुभम् । वल्लभीस्थानं उडू इति ग्रामो वराहमूलोपकण्ठस्थितः।'
इससे इतना ही ज्ञात होता है कि भट्टभूम काश्मीरी थे इनका निवास स्थान वल्लभी था, जो वराहमूल (बारामूला) के समीपवर्ती उडु ग्राम है।
___ इससे अधिक इस महाकवि के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं १० होता।
काल-क्षेमेन्द्र ने सुवृत्ततिलक के तृतीय विन्यास के चतुर्थ श्लोक में भूम-विरचित भौमक काव्य का साक्षात उल्लेख किया है।' इससे इतना तो निश्चित है कि भट्टभूम वि० सं० १०६० से पूर्ववर्ती अवश्य है। _ 'संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' पृष्ठ १४२ पर सीताराम जयराम जोशी ने लिखा है
"काशिकावृत्ति तथा क्षेमेन्द्र के सुवृत्ततिलक में इस काव्य का निर्देश मिलता है। यह कवि प्रवरसेन (ई० ५५०--६००) और ई० ६६० से पूर्व था।"
वी० वरदाचार्य ने भी रावणार्जुनीय काव्य का निर्देश काशिकावृत्ति में माना है। और भौमक चे रावणार्जुनीय काव्य का प्रभाव भट्टिकाव्य पर स्वीकार करके इसका काल पांचवी शती के लगभग स्वीकार किया हैं ।
हमें इस काव्य का निर्देश काशिकावृत्ति में कहीं नहीं मिला। कह नहीं सकते कि दोनों ग्रन्थकारों ने काशिका में कहीं संकेत उपलब्ध २५ करके लिखा है, अथवा किसी अन्य ग्रन्थ का अन्धानुकरण किया है।
भट्टि और रावाणार्जुनीय का पोर्वापर्य-भट्टि और रावणार्जुनीय
१. भट्टिभौमककाव्यादि काव्यशास्त्रं प्रचक्षते । २. सं० साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, वाचस्पति गैरोलाकृत, पृ० ८५१ .