________________
लक्ष्य-प्रधान काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि
४७६
दोनों काव्यों में कौन पूर्ववर्ती और कौन उत्तरवर्ती हैं, यह अन्तःपरीक्षा के आधार पर सर्वथा असम्भव है। क्षेमेन्द्र के भट्टिभौमककाव्यादि निर्देश में भट्टि का निर्देश पूर्वकालता के कारण है अथवा समास के अल्पाच्तररूप पूर्वनिपात नियम के कारण, यह कहना भी अति कठिन है। पूनरपि हमारा विचार है कि वी० वरदाचार्य का ५ मत (भट्रि से भूमक की पौर्वकालिकता) इस विषय में अधिक ठीक
__ग्रन्थनाम का कारण-इस काव्य में कार्तवीर्य अर्जुन और रावण के युद्ध का वर्णन है। इसलिए रावणार्जुन अथवा अर्जुनरावण द्वन्द्व समास से पाणिनीय ४।३।८८ के नियम से छ (=ईय) प्रत्यय १० होता है।' ___ काव्यपरिचय-भट्ट भूम ने इस काव्य में पाणिनीय अष्टाध्यायी के स्वर वैदिक विषयक सूत्रों को छोड़कर पाणिनि सूत्रक्रम से तत्तत् सूत्रसिद्ध विशिष्ट प्रयोगों के निदर्शन कराने का प्रयत्न किया है। अष्टाध्यायी का प्रथम पाद संज्ञापरिभाषात्मक है,साक्षात् शब्द-साधक १५ नहीं है। इसलिए ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ का प्रारम्भ अष्टाध्यायी के द्वितीय पाद के प्रथम सूत्र से किया है। - मुद्रित ग्रन्थ-प्रारम्भ में इस काव्य की एक ही प्रति काश्मीर से उपलब्ध हुई थी, वह भी मध्य-मध्य में त्रुटित थी। उसी से विभिन्न काल में की गई दो प्रतिलिपियों के आधार पर पं० काशीनाथ २०
और शिवदत्त ने इस ग्रन्थ का सम्पादन किया था। इस कारण काव्यमाला (निर्णयसागर प्रेस) में प्रकाशित ग्रन्थ स्थान-स्थान पर टित है।
सम्पादक-द्वय ने इस मुद्रित ग्रन्थ में यथास्थान पाणिनीय सूत्रों का निर्देश करके इस काव्य की उपयोगिता को निस्सन्देह बढ़ा दिया २५
अन्य हस्तलेख-अब इस काव्य के दो हस्तलेख और उपलब्ध
२. अधिकृत्य कृते ग्रन्थे, शिशुक्रन्दयमस भद्वन्द्वन्द्रजमनादिभ्यश्छः । सम्भव है इस सूत्र से छ' प्रत्यय की प्राप्ति देखकर वरदाचार्य ने रावणार्जुनीय का काशिका में निर्देश लिख दिया हो।