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२/४ शब्दों के धातुजत्व और धातु के स्वरूप पर विचार
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संग्राम व्यय आदि में अडागम उपसर्गाश से पूर्व होता है-प्रसंग्रामयत, अव्ययत् । और आनन्द प्रार्थ आदि शब्दों में समासाभाव के कारण ल्यप् नहीं होता-पानन्दयित्वा, प्रार्थयित्वा । 'जिसमें उपसर्गांश मूल धातु का अवयव नहीं था, उनमें धातु पहले प्रत्यय से युक्त होतो थीं, पीछ उपसर्ग से।' यथा सम् भू-समभवत्, वि भू--व्यभवत् । ५ इस प्रकार उपसर्गयुक्त सम्भू विभू आदि शब्दों के रूपों में अडागम सम् आदि से पूर्व होकर असंभवत् अविभवत् प्रादि प्रयोग निष्पन्न होते थे, और उपसर्गाश को पृथक से जोड़ने पर समभवत् व्यभवत् आदि प्रयोग बनते थे।
पदवाक्यप्रमाणज्ञ भर्तृहरि ने भी उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार किया १० है । वह लिखता है--
अडादीनां व्यवस्थापनार्थं पृथक्त्वेन प्रकल्पनम् । धातूपसर्गयोः शास्त्रे धातुरेव तु तादृशः ।। तथा हि संग्रामयतेः सोपसर्गाद विधिः स्मतः।
क्रियाविशेषाः संघातैः प्रक्रम्यन्ते तथाविधाः ॥' उपसंहार--इस सारी विवेचना से यह स्पष्ट है कि अतिपुराकाल में मूलभूत एक ही प्रकार के शब्द थे। उन्हीं से आख्यातविभक्तियां जुड़कर 'पाख्यात' =क्रिया के रूप बन जाते थे, और नाम विभक्तियां जुड़ कर 'नामिक' रूप । दोनों प्रकार की विभक्तियों का योग न होने पर वे हो अव्यय नाम से व्यवहृत होते थे। भाषा-विज्ञान २० की दष्टि से भाषा-शास्त्र की इस अति प्राचीन काल की स्थिति का अत्यधिक महत्त्व है। इस स्थिति को जान लेने से वर्तमान भाषामतानुसार संस्कृतभाषा पर किये जानेवाले अनेकविध प्रहारों का समुचित उत्तर दिया जा सकता है।
इस प्रकार इस अध्याय में 'शब्दों के धातुजत्व और धातु के " स्वरूप पर विचार करने के पश्चात् अगले अध्याय में पाणिनि से पूर्ववर्ती 'धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता' के विषय में लिखा जाएगा। यह प्रकरण दो अध्यायों में विभक्त किया गया है ।
१. वाक्यपदीय, काण्ड २, कारिका १८१, १८२॥