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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
विभक्तियों का जोड़ना रूप) प्रक्रिया का द्रविड़ प्राणायामवत् क्लिष्ट प्रकारमात्र है।
७-साम्प्रतिक वैयाकरणों द्वारा व्यवहृत नामधातु रूप महतो संज्ञा भी प्राचीन काल की उसी प्रक्रिया को व्यक्त करती है, जिसके ५ अनुसार एक ही शब्द नाम और धातु उभयरूप माना जाता था।
८-वर्तमान वैयाकरणों द्वारा किन्हीं शब्दविशेषों के लिये स्वीकृत 'क्विन्तो धातुत्वं न जहाति' परिभाषा भी वाच उच् आदि शब्दों के उभयविध (नाम धातु) स्वरूप को प्रकट कर रही है ।
__-शिशुपालवध ११६८ की वल्लभदेव की व्याख्या में एक प्राचीन १० श्लोक उद्धृत है । जो इस प्रकार है
शत्रदन्त-क्विबन्तानां कसन्तानां तथैव च ।
तृजन्तानां तु लिङ्गानां धातुत्वं नोपहन्यते ॥ अर्थात्-शत, अद् (पाणिनीय-अच्), क्विप्, क्बसु और तृच्प्रत्ययान्त लिङ्गों (=प्रातिपदिकों) में धातुत्व का नाश नहीं होता, १५ अर्थात् उनमें धातुविहित कार्य हो जाते हैं ।
इससे स्पष्ट है कि वर्तमान धातुओं से शतृ प्रादि प्रत्ययों के करने पर जो रूप बनता है, वह आख्यात और नाम की उभयविध विभक्तियों से सम्बद्ध हो जाता है। अन्यथा 'धातुत्वं नोपहन्यते' विधान का कोई प्रयोजन ही नहीं रहता।
१०-पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा शब्दविशेषों की निष्पत्ति के लिए स्वीकार की गई परस्पर-विरुद्ध--'पूर्व हि धातुरुपसर्गेण युज्यते पश्चात् साधनेन'; 'पूर्व हि धातुः साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेण ।' परिभाषायें प्राचीन काल की भाषाशास्त्र की उस महत्त्वपूण स्थिति
की ओर संकेत करती हैं, जव सम्प्रति उपसर्ग संज्ञा से अभिहित अंश २५ अनेक मूल शब्दों (धातुओं) का अवयव था, और कई एक शब्दों में
पीछे से संयुक्त किया जाता था। जिनमें उपसर्गाश धातु का अवयव था, उसी का संकेत प्रथम परिभाषा में किया है-'धातु से पहले उपसर्ग जूड़ता है, पीछे प्रत्यय पाते हैं।' इस व्याख्या के अनुसार
१. काशकृत्स्न और कातन्त्र व्याकरण में लिङ्ग शब्द प्रातिपदिकों की ३० संज्ञा है।
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