________________
शब्दों के धातुजत्व और धातु के स्वरूप पर विचार २३ पर भी दैवगत्या अवशिष्ट कण्ड्वादिगण उस अति प्राचीन काल की स्थिति को व्यक्त कर रहा है, जब एक ही शब्द आख्यात और नाम की उभयविध विभक्तियों से युक्त होकर क्रियारूपों और नामरूपों को धारण करते थे। धातुपाठस्थ चरादिगण की भी प्रायः यही स्थिति है। अत एव पाणिनि ने चरादिगणस्थ धातूत्रों से णिच् करने के लिए ५ उन्हें सत्याप पाश रूप वीणा आदि ऐसे शब्दों के साथ पढ़ा है जिनका आख्यात और नाम विभक्तियों में प्रयोग होता है।
महाभाष्यकार ने भी ३।१।२१ सूत्र-पठित नाम-शब्दों को पक्षान्तर में धातु स्वीकार किया है
अथवा धातव एव मुण्डादयः । न चैव ह्या आदिश्यन्ते क्रिया- १० वचनता च गम्यते । महा० ३॥१८॥
इसी प्रकार अवगल्भ आदि शब्दों को और क्यजन्त शब्दों को भी महाभाष्यकार ने धातुएं ही माना हैं । द्रष्टव्य क्रमशः महा० ३।१।११ तथा १६ ।
६-समस्त वैयाकरण आज भी सभी नाम (प्रातिपदिक) शब्दों १५ से आचार आदि अर्थों में क्विप् क्यच् क्यङ' आदि प्रत्यय करके उनसे आख्यात रूप बनाते हैं
अश्व-प्रश्वति, अश्वीयति (छन्द में-प्रश्वायति), अश्वायते । यह प्रक्रिया मूलभूत प्राचीन सरलतम (एक शब्द से उभयविध
१. सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वच वर्मवर्णचर्णचुरादिभ्यो णिच। २० अष्टा० ३।१।२५॥ गोल्डस्टुकर ने पाणिनि के इस सूत्र पर आक्षेप करते हुए लिखा है कि पाणिनि ने अपने व्याकरण में वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्था नहीं बांधी। उसने चरादि धातुओं को नामशब्दों से णिविधायक सूत्र में पढ़ दिया। वस्तुत: गोल्डस्टुकर का लेख चिन्त्य हैं। प्राचार्य ने इस व्यवहार से चुरादि घातुओं की उस विशिष्ट स्थिति की ओर संकेत किया हैं, जो कि २५ कण्ड्वादिगणस्थ शब्दों की है।
२ 'सर्वप्रातिपदिकेभ्य आचारे क्विब्वक्तव्य' (वा० ३।१।११) अश्व इव प्राचरित—अश्वति, गर्दभति । 'सुप आस्मन: क्यच् (अष्टा० ३।१।८), उपमानादाचारे, कर्तु: क्यङ् सलोपश्च (अष्टा० ३।१।१०, ११)।