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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
की स्थिति का अनेक प्रकार से बोध करा रहे हैं । हम यहां पाणिनीय व्याकरण के कतिपय निर्देश उपस्थित करते हैं
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१ - पाणिनीय धातुपाठ में प्राज भी शतश: ऐसी धातुएं पठित हैं, जो उसी रूप में लोक में नाम रूप से भी व्यवहृत होती हैं। यथापुष्प शम दम व्यय वृक्ष शूर वीर हल स्थल स्थूल कुल बल ऊह पण वास निवास कुमार गोमय संग्राम श्रादि-आदि ।
२ – पाणिनि के द्वारा विशिष्ट कार्य के लिए लगाए विभिन्न अनु बन्धों को हटाकर यदि अ-वर्ण ( जिसका क्रियारूप में लोग हो जाता है, यथा - पुप्यति ) अन्त में जोड़ दें, तो शतशः धातुएं ऐसी बन १० जाएंगी, जो उसी रूप में नामरूप में प्रयुक्त होती हैं । यथाप्रक्षू = प्रक्ष, श्लोक - श्लोक, आङ् रेकु = श्रारेक, क्रमु = क्रम आदि आदि ।
३ – जिन धातुत्रों में नुम् (न्) का आगम करने के लिए इकार अनुबन्ध लगाया है, उसको हटाकर और यथास्थान मूलभूत अनु१५ नासिक वर्ण को बैठाकर अन्त में अ प्रा जोड़ने से धातुएं मूल शब्दरूप में अनायास परिणत हो जाती हैं। ऐसी धातुएं पाणिनीय धातुपाठ में अत्यधिक हैं । यथा
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स्कभि = स्कम्भ; जूभि = जृम्भा, पडि = पण्डा, मुडि-मुण्ड, टकि- टङ्क, शुठि – शुण्ठ,
यत्रि = यन्त्र,
मत्रि = मन्त्र,
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४ - इसी प्रकार मूलभूत प्रश की उपसर्ग के रूप में पृथक् कल्पना करने पर भी पाणिनीय धातुपाठ में अनेक धातुएं ऐसी विद्यमान हैं, जिनमें वर्तमान दृष्टि से उपसर्गांश संयुक्त है । यथा
संग्राम = सम् + ग्राम, व्यय = वि + श्रय, वीर - वि + ईर |
इन धातुओं के लङ लुङ, लृङ् के रूपों में अट् का आगम उपश से पूर्व होता है।' यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है ।
५ - सहस्रों वर्षों से सूक्ष्मभूत धात्वंश की स्वतन्त्र कल्पना करने
१. महाभाष्यकार ने 'अवश्यं संग्रामयते: सोपसर्गादुत्पत्तिर्वक्तव्या असं - ग्रामयत शूर इत्येवमर्थम्' (३०१।१२ ) में यद्यपि केवल संग्राम का ही निर्देश किया है, तथापि उसे इस प्रकार की धातुनों का उपलक्षक समझना चाहिये।