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शब्दों के धातुजत्व और धातु के स्वरूप पर विचार २१ की निष्पत्ति मानी जाती रही। इसी प्रक्रिया का स्वरूप कण्ड्वादिगण के रूप में आज भी विद्यमान है।
अवरकालीन स्थिति-उक्त काल से अवर काल में व्याकरणशास्त्र का प्रतिक्षेप से प्रवचन करने के लिए तत्कालीन वैयाकरणों ने मूलतः अनेकविध नाम और क्रियापदों की सिद्धि के लिए एक सूक्ष्म धात्वंश को कल्पना की । उसी में विभिन्न प्रत्ययों के परे रहने पर गुण वृद्धि लोप इट् आगम आदि विविध विषयों की कल्पना करके मूलतः विभिन्न शब्दों की निष्पत्ति दर्शाने का प्रयत्न किया गया । इसी काल में मूल शब्दों के अवयवभूत उपसर्गाश भी पृथक् किए गए। यह प्रक्रिया उत्तर काल में अधिकाधिक विकसित होती गई। उसका फल १० यह हुआ कि मूलरूप से विभिन्न स्वतःसिद्ध शब्दों को आज हम एक कृत्रिम धातु से निष्पन्न करने का प्रयत्न करते हैं, और उसी काल्पनिक धातु के अर्थ के अनुसार शब्दार्थ की कल्पना करते हैं।' वतमान धातुाठों में प्राचीन मूलभूत शब्दों का निर्देश
वैयाकरणों द्वारा सहस्रों वर्षों तक लघुभूत कृत्रिम धात्वंश-कल्पना १५ के विकसित होने पर भी अति प्राचीन काल की नाम-आख्यात पदों के एकविध मूल शब्द की स्थिति को सर्वथा लुप्त नहीं किया जा सका। आज भी पाणिनीय तथा तदुत्तरवर्ती व्याकरण उस अति प्राचीनकाल
१. इसी कृत्रिम कल्पना के कारण शब्दार्थ पूर्णत: व्यवस्थित नहीं होता। नौ शब्द की व्युत्पत्ति सांप्रतिक वैयाकरण पलानुदिभ्यां डौः' (उणादि २१६५) सूत्रानुसार 'नुद' धातु से करते हैं । तदनुसार जो कोई पदार्थ प्ररित किया जाए, वह 'नो' कहा जाना चाहिए, परन्तु कहा नहीं जाता। प्राचीन काल की परिस्थिति के अनुसार प्लवनार्थक 'नावति' क्रिया का कर्ता ही 'नौ' पदवाच्य होगा। काशकृत्स्न धातुपाठ में ‘णौ प्लवने' धातु आज भी पठित मिलती है । यही अवस्था ‘गच्छतीति गौः' की है। भर्तृहरि ने वाक्यपदीय २।१७६ में कहा २५ है.—गौरित्येव स्वरूपाद्धा गोशब्दो गोषु वर्तते।' इसके स्वोपज्ञ विवरण में लिखा है—'अपरे त्वाचार्या औक्थिक्यादयो गौः कस्सात् गौरित्येव गौरिति निर्वचनमाहुः।' ये वचन भी पुराकाल की 'गौ' अथवा 'गो' रूप मूल शब्द की ओर संकेत करते हैं।