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. संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
इन उदाहरणों और प्रत्युदाहरण से स्पष्ट है कि पाणिनि से पूर्व काल में चित्रकाव्य रूप बन्धविशेषों का प्रचुर व्यवहार होने लग गया था।
___ 'याज्ञिक श्यनचित् प्रादि के साथ चक्रबन्ध आदि का सादृश्य-यज्ञ ५ सम्बन्धी श्येनचित् कडूचित्' आदि ऋतुविधियों के साथ छन्दशास्त्र
सम्बन्धी चक्रबन्ध क्रौञ्चबन्ध गुप्तिबन्ध आदि की तुलना करने से इनमें परस्पर अद्भुत सादृश्य दिखाई देता है । यज्ञ में श्येन आदि प्राकार की निष्पत्ति के लिए विभिन्न प्रकार की इष्टकायों का ऐसे
ढंग से चयन करना होता है कि उन इष्टकाओं के चयन से श्येन आदि १० की प्राकृति निष्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार चक्रबन्ध क्रौञ्चबन्ध
गुप्तिबन्ध आदि में भी शब्दों का चयन अथवा बन्धन इस ढंग से किया जाता है कि उस पर रेखाएं खींच देने पर चक्र क्रौञ्च और गुप्ति आदि की आकृति बन जाती है।
पाश्चात्त्य विद्वान् इस विषय में तो सहमत हैं कि पाणिनि से पूर्व १५ श्येनचित् कङ्कचित् आदि चयनयागों का उद्भव हो चुका था। ऐसी
अवस्था में उनके अनुकरण पर निर्मित चक्रबन्ध क्रौञ्चबन्ध गुप्तिबन्ध आदि चित्रकाव्यों की सत्ता में क्या विप्रतिपत्ति हो सकती है ? और वह भी उस अवस्था में जब कि पाणिनि के व्याकरणसत्रों द्वारा
क्रौञ्चबन्ध चक्रबन्ध गुप्तिबन्ध आदि के साधुत्व का स्पष्ट निदर्शन हो २० रहा है।
अब रह जाता है जाम्बवतीविजय के गृह्य आदि ऐसे प्रयोगों का प्रश्न जो पाणिनि के लक्षणों से साक्षात् उपपन्न नहीं होते । इसका उत्तर यह है कि पाणिनि ने अपने जिस शब्दानुशासन का प्रवचन
किया है, वह अत्यन्त संक्षिप्त है। उसमें प्रायः उत्सर्ग सूत्रों के अल्प २५ प्रयुक्त शब्दविषयक अपवाद सूत्रों का विधान नहीं किया है। इतना
ही नहीं, यदि पाणिनि के उत्सर्ग नियमों से साक्षात् प्रसिद्ध शब्दों के
१. छन्दःशास्त्र की प्रवृत्ति कब हुई, इसके परिज्ञान के लिये देखिये हमारे "वैदिक छन्दोमीमांसा' ग्रन्थ का 'छन्दःशास्त्र की प्राचीनता' अध्याय, तथा
'छन्दःशास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ (यह शीघ्र छपेमा)। ३० २. श्येनचितं चिन्वीत, कङ्कचितं चिन्वीत।