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व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार
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अर्थात् - यह दोष नहीं है, जो कहा है कि -- ' शब्द को व्याकरण मानने पर ल्युट् का अर्थ उपपन्न नहीं होता ।' नहीं आवश्यक रूप से करण और अधिकरण में ही ल्युट् का विधान किया है, अपितु अन्य कारकों में भी — 'कृत्यल्युटो बहुलम् ( कृत्य और ल्युट् बहुल करके सामान्य-विधान से अन्यत्र भी होते हैं) सूत्र द्वारा । जैसे— प्रस्कन्दन ५ प्रपतन [ में अपादान में ल्युट् देखा जाता है ] ।
इस विवेचना से स्पष्ट है कि व्याकरण शब्द का क्षेत्र लक्ष्य और लक्षण दोनों तक अभिव्याप्त है । लक्षणमात्र के लिये व्याकरण शब्द का प्रयोग प्रोक्तरूप अर्थ विशेष को लेकर होता है । '
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व्याकरण शब्द के उपरिनिर्दिष्ट व्यापक अर्थ को दृष्टि में रख कर अनेक व्याकरण प्रवक्ताओं ने जहां लक्षण ग्रन्थों का प्रवचन किया, वहां उन लक्षणों की चरितार्थता दर्शाने के लिये उनके लक्ष्यभूत शब्दविशेषों को संगृहीत करके लक्ष्यरूप काव्यग्रन्थों की भी सृष्टि की । लक्ष्य-प्रधान काव्यों की रचना कब से प्रारम्भ हुई, इस विषय में इतिहास मौन है | परन्तु महाभाष्यकार पतञ्जलि ने किसी लक्ष्य-प्रधान १५ काव्य का एक सुन्दर श्लोक महाभाष्य प्र० ११०५६ में उद्धृत किया है । वह इस प्रकार है
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'स्तोष्याम्यहं पादिकमौदवाहिं ततः श्वभूते शातनों पातनीं च । नेतारावागच्छतां धारण रावण च ततः पश्चात् स्त्रस्यते ध्वंस्यते च ॥' इस श्लोक में अचः परस्मिन् पूर्वविधौ ( ० १|१|५६ ) सूत्र के प्रयोजन निदर्शक पादिक श्रदवाहि शातनी पातनी धारणि रावणि नामों का, तथा त्रस्यते ध्वंस्यते त्रियाओं का निर्देश किया है । महाभाष्यकार ने कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि के प्रसङ्ग में प्रयोजन के निदर्शनार्थ इस श्लोक को उपस्थित किया है |
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इस ब्लोक में 'श्वभूति' को सम्बोधन किया गया है । कैयट ने श्वभूतिर्नाम शिष्यः लिखा है । अनेक विद्वानों का मत है कि 'श्वभूति' पाणिनिका शिष्य था । श्वभूति ने अष्टाध्यायी की कोई वृत्ति भो
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१. प्रोक्तादयश्च तद्धिता नोपपद्यन्ते - पाणिनिना प्रोक्तंपाणिनीयम् ग्रपिशलम्, काशकृत्स्नमिति । नहि पाणिनिना शब्दाः प्रोक्ताः किन्तर्हि ? सूत्रम् । ( महा० नवा० पृष्ठ ७० )
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