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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
साहित्य-ग्रन्थों में अनेक ऐसे काव्य हैं, जो व्याकरणशास्त्र का वोध कराने के विशेष उद्देश्य से लिखे गये हैं । यद्यपि उक्तलक्षणानुसार इस प्रकार के ग्रन्थों के लिये काव्यशास्त्र पद रूढ़ है, पुनरपि इस शब्द की उक्त विशेष अर्थ में प्रसिद्धि न होने से हमने लक्ष्य-प्रधान काव्य शब्द का व्यवहार किया है, वा करेंगे। इस अध्याय में इसी प्रकार के लक्ष्य प्रधान काव्यों का वर्णन किया जायेगा। ..
- 'लक्ष्य-प्रधान काव्यों की रचना का प्रयोजन—व्याकरण शब्द • के अर्थ पर विचार करते हुए भगवान् कात्यायन ने लिखा है
- 'लक्ष्यलक्षणे व्याकरणम्।' १० इस वार्तिक की व्याख्या पतञ्जलि ने इस प्रकार की है
'लक्ष्यं लक्षणं चैतत् समुदितं व्याकरणं भवति । किं पुनर्लक्ष्यम् ? किं वा लक्षणम् ? शब्दो लक्ष्यः, सूत्रं लक्षणम् ।' महा० नवा०, पृष्ठ * ७१ (बम्बई सं०)। ..
अर्थात - लक्ष्य और लक्षण मिलकर व्याकरण कहाता है। लक्ष्य १५ शब्द है, और लक्षण सूत्र ।
___ व्याकरण शब्द वि प्राङ् दो उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर बनता है। ल्यूट प्रत्यय करण अधिकरण आदि अनेक अर्थों में होता है । करण में ल्युट होने पर व्याकरण शब्द का अर्थ
. 'व्याक्रियन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम्।' २० व्युत्पत्ति के अनुसार लक्षण =सूत्र होता है। परन्तु कर्म में ल्युट् ___होने पर
- 'व्याक्रियते यत् तत् व्याकरणम् ।' ___ व्युत्पत्त्यनुसार व्याकरण शब्द का अर्थ लक्ष्य अर्थात् शब्द होता
२५.
पतञ्जलि ने स्पष्ट लिखा है'अयं तावद् प्रदोषः-यदुच्यते 'शब्दे ल्युडर्थः' इति । नावश्यं करणाधिकरणयोरेव ल्युड् विधीयते। किन्तहि ? अन्येष्वपि कारकेषु 'कृत्यल्युटो बहुलम्' इति । तद्यथा -प्रस्कन्दनं प्रपतनमिति । महा० नवा० पृष्ठ ७१) ।'