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तीसवां अध्याय
लक्ष्य-प्रधान काव्य-शास्त्रकार वैयाकरण कवि
शास्त्रीय वाङ्मय में लक्ष्य-प्रधान काव्यों के लिए काव्यशास्त्र शब्द का प्रयोग किया गया है । क्षेमेन्द्र ने 'सुवृत्त - तिलक' नामक ग्रन्थ के तृतीय विन्यास के आरम्भ में लिखा है
'शास्त्रं काव्यं शास्त्रकाव्यं काव्यशास्त्रं च भेदतः । चतुष्प्रकारः प्रसरः सतां सारस्वतो मतः ॥२॥ शास्त्र काव्यविदः प्राहुः सर्व काव्याङ्गलक्षणम् । काव्यं विशिष्टशब्दार्थसाहित्यसदलंकृति ॥३॥ शास्त्रकाव्यं चतुर्वर्गप्रायं सर्वोपदेशकृत् । भट्टिभौमकाव्यादि काव्यशास्त्रं प्रचक्षते ॥४॥'
अर्थात् - सारस्वतप्रसार शास्त्र, काव्य, शास्त्रकाव्य और काव्यशास्त्र के भेद से चार प्रकार का है । काव्यविद् आचार्य सब प्रकार के काव्य-काव्याङ्गों के लक्षण बोधक ग्रन्थ को शास्त्र कहते हैं । विशिष्ट शब्द और अर्थ से युक्त उत्तम अलंकृत ग्रन्थ को काव्य' कहते १५ हैं। चारों वर्गों का उपदेश देने वाला ग्रन्थ शास्त्रकाव्य कहाता हैं । * और भट्टि भौमक आदि काव्य काव्यशास्त्र' कहाते हैं ।
इस लक्षण से स्पष्ट है कि जो ग्रन्थ काव्य होता हुआ किसी विशेष विषय का शासन करे, वह काव्यशास्त्र पदवाच्य होता है ।
१. यथा - काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण आदि । २. यथा - रघुवंश आदि । ३. तुलना करो - तददोषौ शब्दार्थों सगुणवान् अनलंकृति पुनः क्वापि । काव्यप्रकाश । ४. यथा - रामायण महाभारतादि ।
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५. भौमक — रावणार्ज नीय काव्य ।
६. 'काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ॥ सूक्ति में निर्दिष्ट 'काव्यशास्त्र' शब्द का यही विशिष्ट २५ पारिभाषिक अर्थ अभिप्रेत है, न कि सामान्य काव्य ग्रन्थ ।