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संस्कत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
लिखी थी। इसका निर्देश हम अष्टाध्यायी के वृत्तिकार प्रकरण में भाग १ पृष्ठ ४८१ (च० सं०) पर कर चुके हैं। ___महाभाष्य के उक्त उद्धरण से इतना तो स्पष्ट है कि लक्ष्य-प्रधान
काव्यों की रचना महाभाष्य से पूर्व हो चुकी थी। लक्ष्यप्रधान वैया५ करणों में कुछ ऐसे वैयाकरण भी हैं, जिन्होंने लक्षणग्रन्थों का तो
स्वतन्त्र प्रवचन नहीं किया, परन्तु पूर्व प्रसिद्ध लक्षणग्रन्थों को दृष्टि में रखते हुए केवल लक्ष्यरूप काव्य ग्रन्थों की ही रचना की । यहां हम उभय प्रकार के वैयाकरणों द्वारा सृष्ट काव्यग्रन्थों का निर्देश करेंगे।
१-पाणिनि (२८०० वि० पूर्व) १० प्राचीन वैयाकरणों में पाणिनि ही ऐसे वैयाकरण हैं, जिनका
काव्यस्रष्टुत्व न केवल वैयाकरण-निकाय में आबालवृद्ध प्रसिद्ध है अपितु काव्यवाङ्मय के इतिहास में भी मूर्द्धाभिषिक्त है। - पाणिनि के काव्य का नाम जाम्बवतीविजय है। इसका दूसरा
नाम पातालविजय भी है ।' भगवान् पाणिनि ने इस महाकाव्य में श्री १५ कृष्ण के पाताल लोक में जाकर जाम्बवती के विजय मौर परिणय की कथा का वर्णन किया है।
पाश्चात्त्य विद्वानों तथा उनके अनुयायियों की कल्पना-डाक्टर पीटर्सन आदि पाश्चात्त्य विद्वानों तथा तदनुगामी डा० भण्डारकर
आदि कतिपय भारतीय विद्वान् जाम्बवती विजय के उपलब्ध उद्धरणों २० की लालित्यपूर्ण सरस रचना और क्वचित् व्याकरण के उत्सर्ग
नियमों का उल्लङ्गन देखकर कहते हैं कि यह काव्य शुष्क वैयाकरण पाणिनि की कृति नहीं है।
उक्त कल्पना का मिथ्यात्व-वस्तुतः सत्य भारतीय इतिहास के प्रकाश में उक्त कल्पना सर्वथा मिथ्या है, अतएव नितान्त हेय है। २५ भारतीय वाङ्मय में असन्दिग्ध रूप से इसे वैयाकरण पाणिनि की
१. सीताराम जय राम जोशी एम. ए. और विश्वनाथ शास्त्री एम. ए. ने संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' ग्रन्थ में जाम्बवतीविजय और पातालविजय दो पृथक् काव्य ग्रन्थ माने हैं । पृष्ठ १७ । यह ऐतिह्य विरुद्ध होने से उनकी भूल है।