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व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार
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पाण्डित्य-मण्डन मिश्र अपने समय के महान् विद्वान् थे। इनके गृह द्वार पर कीराङ्गनायें भी वेद के स्वतःप्रमाण पर विवाद करती थीं । शङ्करदिग्विजय में लिखा है कि शङ्कर ने माहिष्मती (वर्तमान 'महेश्वर'-म० प्र०) में जाकर किसी पनिहारी, से मण्डन मिश्र का गृह पूछा । पनिहारी ने उत्तर दिया__'स्वतःप्रमाणं परतःप्रमाणं कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।।
द्वारस्थनीडा तरुसन्निपाते जानीहि तन्मण्डनमिश्रधाम ॥'.." अर्थात्-जिस गृह-द्वार पर शुकियां वेद के स्वतःप्रमाण परत:प्रमाण पर शास्त्रार्थ करती हुई मिले, उसे ही मण्डन मिश्र का घर समझना।
नामान्तर-अद्वैत सम्प्रदाय में प्रसिद्धि है कि शङ्कर से पराजित होकर अद्वैतवादी बनकर मण्डन मिश्र 'सुरेश्वराचार्य' नाम से प्रसिद्ध हुए। अनेक लेखकों ने सुरेश्वर को मण्डन मिश्र के नाम से भी उद्धृत किया है।
काल-मण्डन मिश्र के गुरु भट्ट कुमारिल तथा शंकराचार्य का १५ समय प्रायः ८००-८२० वि० के लगभग माना जाता है। परन्तु यह सर्वथा काल्पनिक है । भट्ट कुमारिल और शङ्कर दोनों ही इससे बहुत पूर्व के व्यक्ति हैं । हमने इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में पृष्ठ ३८९-३६० (च०सं०) पर लिखा है कि शतपथ ब्राह्मण के भाष्यकार हरिस्वामी ने शतपथ व्याख्या में भट्ट कुमारिल के शिष्य प्रभाकर के मतानुयायियों २० का निर्देश किया है
'अथवा सूत्राणि, यथा विध्युद्देश इति प्रभाकराः-अपः प्रणयतीति यथा । हमारा हस्तलेख पृष्ठ ५।
हरिस्वामी का काल ३७४० कल्यब्द-वि० सं० ६६५ निश्चित है। हां उसके वचन की भिन्न व्याख्या करने पर हरिस्वामी का काल २५ ३०४७ विक्रम संवत् का आरम्भ बनता है। विक्रम संवत् का प्रारम्भ कलि संवत् ३०४५ से होता है। यदि द्वितीय कल्पना को सत्य न भी मानें, तब भी इतना तो निश्चित ही है कि कुमारिल वि० सं०
- १. विक्रम द्विसहस्राब्दी स्मारक ग्रन्थ में पं० सदाशिव कात्र का लेख । द्र०-मं० व्या० इतिहास भाग १, पृष्ठ ३८८-३८६ (च० सं०)।
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