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संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
'ज्ञानं च संस्कारश्चेति । वृत्तिव्याख्याता षष्ठीसमासमाह ।" इन पूर्वाचार्य कृत व्याख्यानों में से न तो किसी का ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं, और न ही किसी का नाम ज्ञात है ।
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१. वृषभदेव
वृषभदेव ने अपनी टीका के आरम्भ में निम्न श्लोक लिखे हैंविमलचरितस्य राज्ञो विदुषः श्रीविष्णुगुप्त देवस्य ।
भृत्येन तदनुभावाच्छ्रीदेवयशस्तनूजेन । बन्धेन विनोदार्थं श्री वृषभेण स्फुटाक्षरं नाम ॥'
इससे केवल इतना ज्ञात होता है कि वृषभदेव विमलचरित वाले १० विष्णुगुप्त राजा के प्राश्रित श्रीदेवयश का पुत्र था ।
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विष्णुगुप्त के काल का निश्चय न होने से वृषभदेव का काल भी अज्ञात है ।
२. धर्मपाल (८ वीं शती वि० का प्रथम चरण ) चीनी यात्री इन्सिग के लेख से विदित होता है कि भर्तृहरि के १५ प्रकीर्ण नामक तृतीय काण्ड पर धर्मपाल ने व्याख्या लिखी थी ।
इत्सिग ने अपना यात्रा वर्णन सं० ७४९ वि० में लिखा है । इस प्रकार वाक्यपदीय के व्याख्याता धर्मपाल का काल विक्रम की आठवीं शती का प्रथम चरण, अथवा उससे पूर्व रहा होगा ।
इससे अधिक इसके विषय में कुछ ज्ञात नहीं है ।
३. पुण्यराज (११ वीं शती वि० )
वाक्यपदीय के द्वितीय काण्ड पर पुण्यराज ने एक अनतिविस्तीर्ण परन्तु स्फुटार्थक व्याख्या लिखी है ।
परिचय - पुण्यराज के द्वितीय काण्ड की व्याख्या के अन्त में अपना जो प्रति संक्षिप्त परिचय दिया है, उससे ज्ञात होता है कि २५ पुण्यराज का दूसरा नाम राजानक शूरवर्मा था । यह काश्मीर का निवासी था । इसने किसी शशाङ्क के शिष्य से वाक्यपदीय का श्रवण ( = ग्रध्ययन ) करके इस काण्ड पर वृत्ति लिखी है ।
१. ब्रह्मकाण्ड, ला० सं० भू० पृ० २२ । २. वही, भूमिका, पृष्ठ १२ ।