________________
' व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार ४४३ ......."तथा च टीकाकारः प्रदर्शयिष्यति ।'
भाष्य -तत्र इलोकोपात्तं दृष्टान्त विभज्य दान्तिक भाष्यं विभजन्ति वर्णपदेति ।
वाक्यपदीय नाम से निर्देश-अनेक ग्रन्थकारों ने वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ की व्याख्या को 'वाक्यपदीय' नाम से भी उद्धृत किया ५ है यथा_ 'उक्तं च वाक्यपदीये नहि गौः स्वरूपेण गौः, नाप्यगौर्गोत्वादिसम्बन्धात्त : गौः।
यह स्वोपज्ञ-व्याख्या का पाठ है। काव्य-प्रकाशकार ने उल्लास २ में इसे वाक्यपदीय के नाम से उद्धृत किया है। ___दो पाठ-हरि की स्वोपज्ञ वृत्ति का जो पाठ पं० चारुदेव जी ने सम्पादित किया है, उसके अतिरिक्त एक पाठ काशी संस्करण में मुद्रित हुआ है । दोनों में पाठ की समानता और प्रथम की अपेक्षा काशीपाठ में लोघव होने से व्यवहार के लिए इसका नाम लध्वी वृत्ति रखा गया है।
लघ्वी वृत्ति के रचयिता-इस लघ्वी वृत्ति का रचयिता निश्चय ही हरि से भिन्न व्यक्ति है । पं० चारुदेव जी ने ब्रह्मकाण्ड की भूमिका में पृष्ठ १८-२६ तक अनेक प्रमाण देकर इस तत्त्व का प्रतिपादन किया है।
वृत्ति के व्याख्याकार भर्तृहरि की ब्रह्मकाण्ड की स्वोपज्ञवृत्ति की अनेक वैयाकरणों ने व्याख्याएं लिखी थीं। स्वोपज्ञवृत्ति का व्याख्याता वृषभदेव टीका के प्रारम्भ में लिखता है... 'यद्यपि टीका बह्वयः पूर्वाचार्यः सुनिर्मला रचिताः' । पुनः कारिका १।१० की वृत्ति की व्याख्या में वृषभदेव लिखता २५
१. पुण्य० टीका ला० सं० पृष्ठ १० । ...२. वृष० टीका, ला० सं० पृष्ठ ८४ । ३. 'ब्रह्मकाण्ड, लाहौर संस्करण, भूमिका पृष्ठ १२ ।