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संस्कत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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श्राद्य सम्पादन - इस वृत्ति का प्रथम सम्पादन पं० चारुदेव जी ने किया है । और यह रामलाल कपूर ट्रस्ट लाहौर ( वर्तमान में वहालगढ़-सोनीपत) से प्रकाशित हुई है । प्रथम काण्ड वृषभदेव की टीका सहित छपा है। इस टीका का एकमात्र अशुद्धिबहुल हस्तलेख ५ होने से इसका पूरा प्रकाशन नहीं हुआ । द्वितीय काण्ड का मुद्रण भी प्रथम काण्ड के प्रकाशन के अनन्तर सन् १९३५ में आरम्भ हो गया था, परन्तु किन्हीं कारणों से १८४ कारिका तक छप कर रह गया । इस भाग में स्वोपज्ञ टीका के खण्डित होने के कारण पुण्यराज की टीका भी साथ में छापी गई है । १८४ कारिका तक का सन् १० १९३५ में छपा भाग सन् १९४१ में कथंचित् प्रकाशित किया गया ।
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१८४ कारिका से आगे के भाग के प्रकाशन के लिये मैंने सन् १९४६ में लाहौर पुनः जाने पर श्री पं० चारुदेव जी से अनेक बार निवेदन किया । दो तीन बार यह अनुरोध भी किया कि यदि आप न कर सकें, तो हस्तलेख ही मुझे लाकर दे देवें । मैं कथंचित् सम्पादन १५ करके ग्रन्थ को पूर्ण कर दूंगा । परन्तु कुछ अस्वस्थतावश और ग्रालस्यवश प्रापने मुझे ग्रन्थ भी लाकर नहीं दिया। इसका फल यह हुआ कि यह ग्रन्थ अधूरा ही रह गया । द्वितीय काण्ड का स्वोपज्ञ वृत्ति का एकमात्र हस्तलेख पञ्जाब विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में था, जो पाकिस्तान में रह गया । अब इस ग्रन्थ का पूरा होना शक्य है ।
अन्य संस्करणों का हम पूर्व निर्देश कर चुके हैं ।
स्वोपज्ञ व्याख्या के नाम भर्तृहरि स्वोपज्ञ व्याख्या का निर्देश टीकाकारों ने अनेक नामों से किया है । यथा
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वृत्ति - ग्रन्थकृतैव स्ववृत्तौ प्रतिपादितम् ।'
विवरण - कारिकोपन्यासफलं स्वयमेव विवरणे दर्शयिष्यति ।'
टीका - " पदवादिपक्षदूषणपरः परं टीकाकारो व्यवस्थापयतीत्यस्य काण्डस्य संक्षेपः
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१. पुण्यराजीय टीका, लाहौर संस्करण, पृष्ठ ४६ ।
२. वृषभदेव टीका, काण्ड १, लाहौर संस्करण, पृष्ठ १३३ ।
३. पुण्यराजीय टीका, लाहौर संस्करण, पृष्ठ ७ ।