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व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार ४३६ 'तत्र द्वादश षट् चतुविशतिर्वा लक्षणानीति लक्षणसमुद्देशे सापदेशं सविरोधं विस्तरेण व्याख्यास्यते।'
अर्थात् १२, ६, २४ लक्षणों की लक्षणस मुद्देश में विस्तार से व्याख्या की जाएगी।
सम्प्रति उपलब्ध त्रिकाण्डी में लक्षणसमुद्देश उपलब्ध ही नहीं ५ होता । यह समुद्देश पुप्यराज के काल में ही नष्ट हो गया था। वह इसी प्रसंग में (२।७७-८३) की व्याख्या में लिखता है- ..
'एतेषां वितत्य सोपपत्तिकं सनिदर्शनस्वरूपं पदकाण्डे लक्षणसमुद्देशे निर्दिष्टमिति ग्रन्थकृतव स्ववृत्तौ प्रतिपादितम् । प्रागमभ्रंशा. ल्लेखकप्रमादादिना वा लक्षणसमुद्देशश्च पदकाण्डमध्ये न प्रसिद्धः।' १० पृष्ठ ४६, लाहौर संस्करण।
अर्थात् इन लक्षणों का सोपपत्ति सोदाहरण स्वरूप लक्षणसमुद्देश में निदर्शित किया है, ऐसा ग्रन्थकार ने अपनी वृत्ति में लिखा है। परन्तु आगम के भ्रंश होने, अथवा लेखकप्रमादादि के कारण लक्षणसमुद्देश तृतीय काण्ड में नहीं मिलता।
२-उक्त प्रकरण में (पृष्ठ ५०, लाहौर सं०) ही पुण्यराज लिखता है
'सेयमपरिमाणविकल्पा बाधा विस्तरेण बाधासमुद्देशे समर्थयिष्यते।
अर्थात्-इस अपरिमाण (= बहुत प्रकार की) विकल्पोंवाली २० का विस्तार से 'बाधासमुद्देश' में वर्णन किया जाएंगा। ___पुण्यराज के इस वचन से स्पष्ट है कि उसके काल में वाक्यपदीय में कोई बाधा-समुद्दे श विद्यमान था, परन्तु यह सम्प्रति अनुपलब्ध है।'
३-अनेक ग्रन्थकारों ने भर्तृहरि अथवा हरि के नाम से अनेक कारिकाएं उद्धृत की हैं । वे वर्तमान वाक्यपदीय ग्रन्थ में उपलब्ध २५ नहीं होती। यथा___ भट्टोजिदीक्षित शब्दकौस्तुभ पृष्ठ ५२७ में प्रकीर्ण काण्ड के नाम से भर्तृहरि की-अपाये यदुदासीनम् ..."तथा पततो ध्रुव एवाश्वः ......"कारिकाएं उधत करता है। परन्तु सम्प्रति वाक्यपदीय में ये कारिकाएं उपलब्ध नहीं होती।