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४३८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास त्रिपदा कृता वचन से तीनों काण्डों का सामान्य नाम 'वाक्यपदीय' स्वीकार किया है, यह चिन्त्य है। इससे तीन काण्डात्मक ग्रन्थैकत्व का तो बोध होता है, परन्तु तीनों कोण्ड वाक्यपदीय पदवाच्य हैं, यह
कथमपि संकेतित नहीं होता । अपितु इसके विपरीत त्रिपदी विशेषण ५ तीनों काण्डों की विभिन्न संज्ञाओं का संकेत करता है।
वाक्यप्रदीप - वाक्यपदीय का एक नाम वाक्यप्रदीप भी था। यह बूहलर ने मनुस्मृति के मेधातिथि भाष्य की भूमिका में लिखा है।'
इसी विषय में प्रात्मकूर (आन्ध्र) निवासी पण्डित प्रवर पद्यनाभ राव जी ने अपने २ अप्रेल सन् १९७८ के पत्र में लिखा है -
खीस्ताब्द की १६ वीं शती के 'पुणतांवा' (गोदावरी तीरवर्ती) नगर के पं० नारोपन्त (नोरायण पण्डित) ने तत्त्वोद्योत की टिप्पणी में लिखा है
. भर्तृहरिरप्यमुमेवार्थ वाक्यप्रदीपे प्रादर्शयत् -'साकाङ. क्षावयवं भेदे...... वाक्यविदो विदुः' इति ।
वाक्यपदीय का कर्ता-वाक्यपदीय ग्रन्थ का रचयिता आचार्य भर्तृहरि है, इसमें किसी को भी कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। इतना होते हुए भी कतिपय कारिकाएं भर्तृहरि विरचित नहीं हैं । भर्तृहरि ने प्रकरणानुरोध से प्राचीन प्राचार्यों की भी कतिपय कारिकाएं कहीं
कहीं संगृहीत कर दी हैं। २०. वाक्यपदीय में ग्रन्थपात-वाक्यपदीय का जो पाठ सम्प्रति उप
लब्ध होता है, उसमें कुछ ग्रन्थ नष्ट हो गया है । इसकी पुष्टि निम्न प्रमाणों से होती है
१ -भर्तृहरि वाक्य० २१७६ कारिका की स्वोपज्ञ व्याख्या में लिखता है
१. वाक्यपदीय Which sometimes is called वाक्यप्रदीप । द्र०-Sacred Book of the East vol 25 page 123, foot note 1. .
२. पत्र संस्कृत में है। यहां उसका भाषानुवाद दिया है। ३. द्र० वाक्यपदीय २१४ किञ्चित् पाठ भेद से। ४. द्र०-ब्रह्मकाण्ड, चारुदेवीय भूमिका, पृष्ठ ६, १० ।
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