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'व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार
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४ – कई एक हस्तलेखों में द्वितीय काण्ड के अन्त में इस प्रकार
"
लेख मिलता है
.' इति भगवद्भर्तृहरिकृते वाक्यपदीये द्वितीयं काण्डम् । समाप्ता वाक्यपदीयकारिका' ।'
यही कारण है कि तृतीय काण्ड स्वतन्त्र प्रकीर्ण नाम से व्यवहृत होता है। हेलाराजीय तृतीय काण्ड की व्याख्या का प्रकीर्ण- प्रकाश नाम भी इसी मत का पोषक है ।
स्वमत - हमारा मन इन दोनों से पृथक है । हमारा विचार है कि 'वाक्यपदीय' नाम केवल द्वितीय काण्ड का है । इस काण्ड से आरम्भ में वाक्य विचार है, और उसके अनन्तर पद विचार किया १० गया है । इस प्रकार तीनों काण्डों के तीन नाम हैं- प्रागम काण्ड, वाक्यपदीय काण्ड, प्रकीर्ण काण्ड । इसी मत की पुष्टि हेलाराज के निम्न श्लोक से होती है -
त्रैलोक्यगामिनी येन त्रिकाण्डी त्रिपदी कृता ।'
अर्थात् त्रैलोक्यगामिनी (गंगा के समान) जिसने तीन काण्डों- १५ वाली त्रिपदी बनायी ।
इस वचन में हेलाराज ने त्रिकाण्डी वाक्यपदीया नहीं लिखा । अपितु उसने त्रिपदी विशेषण दिया है। इसका अर्थ है तीन पदोंवाली = तीन पदों से व्यवहार की जाने वाली त्रिकाण्डी । वे तीन पद कौन से हैं ? इस विचार के उपस्थित होने पर देखा जाए, तो विदित होगा २० किं प्रान्त दो काण्ड ब्रह्म और प्रकीर्ण पदों से प्रसिद्ध हैं। मध्य काण्ड की कोई साक्षात् संज्ञा प्रसिद्ध नहीं है । वह संज्ञा 'वाक्यपदीय' रूप ही है । इसी दृष्टि से त्रिपदी विशेषण सार्थक हो सकता है, अन्यथा कथमपि सम्बद्ध नहीं होता । इस दृष्टि से देहलीदीप न्याय से मध्य पठितवाक्यपदीय नामक काण्ड से प्राद्यन्त काण्डों का भी व्यवहार लोक में २५ होता है । हम इस प्रकरण में तीनों काण्डों के लिए सामान्य रूप से लोक-प्रसिद्ध वाक्यपदीय शब्द का ही व्यवहार करेंगे ।
पं० चारुदेव जी की भूल - ब्रह्मकाण्ड के सम्पादक पं. चारुदेव जी ने हेलाराज के उपरिनिर्दिष्ट त्रैलोक्यगामिनी येन त्रिकाण्डी
१. द्र०- - श्री पं० चारुदेव सम्पादित ब्रह्मकाण्ड की भूमिका, पृष्ठ
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