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४३६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास समकालिकता-निदर्शक वचनों पर हमने विशेष विचार इस ग्रन्थ के प्रथम भाग के द्वितीय संस्करण में प्रस्तुत किया था। इस संस्करण में भी यही मत प्रामाणिक रूप में दर्शाया है।
५-भर्तृहरि (४०० वि० पूर्व) भर्तृहरि ने महाभाष्य का सूक्ष्म दृष्टि से आलोडन करके, और अपने गुरु वसुरात द्वारा उपदिष्ट व्याकरणागम के आधार पर 'वाक्यपदीय' नामा व्याकरणशास्त्र-सम्बद्ध एक अति महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ लिखा । यह ग्रन्थ तीन काण्डों में विभक्त है। वे क्रमशः पागम, वाक्य और पद अथवा प्रकीर्ण नाम से प्रसिद्ध हैं।
वाक्यपदीय नाम-कई प्राचीन ग्रन्थकार वाक्यपदीय नाम से तीनों काण्डों का निर्देश मानते हैं। वाक्यपदीय संज्ञा से भी इसी अभिप्राय की पुष्टि होती है। वाक्य और पद को अधिकृत करके जो ग्रन्थ लिखा जाए, वह 'वाक्यपदीय' कहाता है। प्रथम ब्रह्मकाण्ड में अखण्ड
वाक्यस्वरूप स्फोट का विचार है । द्वितीय काण्ड में दार्शनिक दृष्टि से १५ वाक्यविषयक विचार किया गया है, और तृतीय काण्ड पदविषयक है।
अनेक ग्रन्थकार वाक्यपदीय शब्द से केवल प्रथम द्वितीय काण्डों का निर्देश करते हैं। यथा=
१-प्रकीर्ण काण्ड ३।१५४ की व्याख्या में हेलाराज लिखता है'इति निर्णीतं वाक्यपदीये'। २-वही पुनः प्रथम काण्ड के विषय में लिखता है'विस्तरेणागमतामाण्यं वाक्यपदीयेऽस्माभिः प्रथमकाण्डे शब्दप्रभायां निर्णीतम् तत एवावधार्यम् इति' ।'
३ - गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान अपने ग्रन्थ के आरम्भ में लिखता है२५ भर्तृहरिवाक्यपदीयप्रकीर्णयोः कर्ता महाभाष्यत्रिपाद्या व्याख्याता च।'
१. द्र०-वाक्यपदीय काण्ड २, श्लोक ४८६,४६० की पुण्यराज की टीका।
२. वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड के सम्पादक पं० चारुदेव जी का यह मत है। द्र० - भूमिका, पृष्ठ ७-८। ३० ३. श्री पं० चारुदेव सम्पादित ब्रह्मकाण्ड की भूमिका, पृष्ठ ८ ।।..