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व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार
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होता है कि औदुम्बरायण आचार्य के पिता का नाम उदुम्बर था । उदुम्बर शब्द पाणिनि के नडादिगण (४/१/६९ ) में पठित है। उससे फक् ( = श्रायन) प्रत्यय होकर प्रौदुम्बरायण पद निष्पन्न होता है ।
काल - प्रौदुम्बरायण आचार्य का उल्लेख निरुक्तकार यास्क ने निरुक्त १।१ में किया है । यास्क का काल विक्रम से ३१०० वर्ष पूर्व अर्थात् भारत युद्ध के लगभग सर्वथा निश्चित है । इसलिए प्रौदुम्ब - रायण का काल ३१०० वर्ष विक्रम पूर्व अथवा उससे कुछ पूर्व रहा होगा ।
निरुक्तकार का निर्देश - यास्क ने निरुक्त १1१ में लिखा है - 'इन्द्रिय नित्यं वचनमौदुम्बरायणः ।'
अर्थात् - वचन (शब्द) इन्द्रिय में नियत है । इन्द्रिय से अतिरिक्त शब्द की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं, अर्थात् शब्द अनित्य है, ऐसा दुम्बरायण श्राचार्य का मत है ।
भरत मिश्र के पूर्व-निर्दिष्ट वचन से विदित होता है कि प्रौदुम्बरायण प्राचार्य शब्द के स्फोट स्वरूप का अर्थात् नित्यत्व का प्रति- १५ पादक था । परन्तु यास्क के वचनानुसार यह शब्द के अनित्यत्व पक्ष का निर्देशक विदित होता है ।
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दोनों पक्षों में भूतल - प्रकाश का अन्तर है । फिर भी इसका एक समाधान यह हो सकता है कि स्फोटवादी ध्वनि रूप को भी स्वीकार करते हैं । ध्वनि रूप में शब्द इन्द्रिय नियत ही होता है । सम्भव है ध्वनि पक्ष में जो दोष प्रातें हैं, उनका संग्रह प्रौदुम्बरायण का निर्देश करके यास्क ने उल्लेख किया हो । यदि यह समाधान स्वीकार न किया जाये, तब भी इतना तो स्पष्ट है कि प्रौदुम्बरायण आचार्य ने शब्द के नित्यत्व - अनित्यत्व पक्षों पर विचार अवश्य किया था ।
इससे अधिक हम इस प्राचार्य के ग्रन्थ तथा काल यादि के विषय 'कुछ नहीं जानते ।
में
३ – व्याडि (२९५० वि० पूर्व )
आचार्य व्याडि, जो प्राचीन वाङ्मय में दाक्षायण के नाम से
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